श्री देवाराधना संग्रह | Shri Devaradhana Sangrah

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१२ -तंप कऋटयाणक श्रमजल रहित शरीर, सदा सब मसल रहिउ । छीर वरन-वर रुधिर-प्रथम श्राकृति लहिउ ॥ प्रथम सार सहनन, सुरूप विराज । सह॒ सूगन्ध सुलच्छन मडित ` छाजही ॥ छाजहि श्रतुलबल परम प्रिय हित, मधुरं बचन सुहावने। दस सहज श्रतिशय सभग मूरति, बाललील कहावने । प्रावाल काल त्रिलोक पति जिन रचित उचित जु नित्त नए । श्रमरोपूनीत पुनीत श्रनुपम, सकल भोग विभोगए ॥११॥ भवतन भोग विरक्त, कदाचित चित्तए। धन यौवन पिय पृक्त, कलत्त श्रनित्तये ॥ कोउ नहि शरन मरन दिन, दुख चहुँगति भरयों । सुख दुख.एकहि भोगतः, जिय विधिवश परयो ॥ परयो विधिवश् स्नान चेतस, श्रान जडजु कलेवरो । तन श्रशुवि परते होय श्राख्त्र, परिहरत सवयो ॥ निरजरा तपबल होय, समकित, बिन सदा त्रिभ्रुवन म्यो । दुर्लभ विवेक चिना न कब्रहुं प्रम घरम विषे रम्यो ॥१२ ये प्रभु तरह पावन, भावन भाद्धा। लौकातिक वर्देव, नियोगी श्राइया ॥ कूमुमाजलि दे चरन कमल सिर नाइया । स्वयंबुद्धि प्रश्न थुतिकरि तिन समुक्राइया ॥। ससु खाय प्रभ्नुको गये निजपुर, पुनि महोच्छव हरि कियो रुचिरुचिरचित्र विचित्र सिविका, कर सुनन्दन बन लियो।) ठहूं पचमुष्टी .लोच ' कीनों, प्रथम सिद्धनि थुति करी।




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