अहार क्षेत्र के अभिलेख | Ahar Kshetr Ke Abhilekh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना ६ जिन अन्वयो कं नामोल्लेख मिलते है, वे निप्र प्रकार है- (नोट- जभिलेख सख्या जानने के लिट देखे-अन्वेय अभिलेख सूची परिशिष्ट) अग्रोत्कान्वय इस अन्वय के पोच लेख प्राप्त हुए है । इनमे लेख सख्या २८२१७ सवत्‌ १५०२ का यत्रलेख सर्वाधिकं प्राचीन हे । वर्तमान के भाति अतीतमे भी इस अन्वय के श्रावक जैनधर्मानुयायी रहे ज्ञात होते है। विक्रम सवत्‌ १५७६ मे पडत माणिक्कराज दारा रचे गये “अमरसेनचरिउ' अपभ्रश रचना के प्रेरक श्रावक इसी अन्वय के थे। इसकी उत्पत्ति कवि सधारू ने अपनी रचना प्रद्युम्नचरित मे अगरोहा स्थान से होना बताया है। जनश्रुति है कि हरियाणा प्रदेश कं हिसार जिले मे स्थित अगरोहा मे किसी समय अग्रसेन राजा राज्य करते थे। इस अन्वय का उद्भव उन्हीं के नाम पर हुआ है। कवि बुलाकीचन्द्र ने इसका उद्भव अगर नामक ऋषि के नाम पर बताया है। लोहाचार्य ने इन्हे जैनधर्म मे दीक्षित किया था। इसके अटारह गोत्र बताये गये है वे है-गर्ग, गोयल, सिघल, मुगिल, तायल, तरल, कसल, वछिल, एरन, ठढठालण, चिंतल, मित्तल, हिदल, किधल, हरहरा, कछिल और पुरवत्या ।* अवध पुरान्यय अहार क्षेत्र मे इस अन्वय के तीन प्रतिमालेख मिले ै-नेख सख्या ११.३१० सवत्‌ १२१४ सर्वाधिक प्राचीन है। शाह वख्तराम ने अपने बुद्धिविलास' ग्रन्थ मे अयोध्यापुरी जाति का उल्लेख किया हे ।२ इससे स्पष्ट है कि मध्यकाल तक यह अन्वय अस्तित्व मे रहा । इसके बाद इस अन्वय का लोप हो गया । इसका उद्भव अवध प्रदेश से होना सभावित है। कुटकान्वय इस अन्वय के सवत्‌ १२१३ का एक ओर सवत्‌ १२१६ के दो, कुल तीन लेख उपलब्ध है । इन लेखो मे इस अन्वय का प्रयोग भट्टारको कं साध हुजा है। भट्टारक प्रथा का दक्षिण मे अधिक प्रभाव रहा। चित्रकूट स्थल इसका उद्भव स्थल ज्ञात होता है। ऊन (पावागिरी) से प्राप्त सवत्‌ १२५२ के एक प्रतिमालेख मे “चित्रकुटान्वय' का नामोल्लेख हुजा भी है ।२२ अहार मे प्राप्त ३१ डो० कस्तूरचन्द्र कासलीवाले, खण्डेलवाल जैन समाज का बृहद्‌ इतिहास पृष्ठ ४६-५० । ३२ वही, पृ ३८। ३३. अनेकान्त अप्रैल १६६६, पृ० ३१।




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