हिन्दुस्तानी त्रैमासिक | Hindustani Traimasik

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Hindustani Traimasik by श्री बालकृष्ण राव - Balkrishna Rao

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६ हिन्दुस्तानी भाम ३० भारतीय साहित्य में अप्रस्तुत विधान सर्जनशील भाषा की एक बिशिष्टता के रूप मे प्रयुक्त होता रहा है। झलंकारों में उपमा श्रौर रूपक कौ जधिक महत्व प्रदान्‌ किया गया । उपसा में उपमानों की योजना से विषय की स्पष्टता, भ्रनुभूति की सम्प्रेपसीयता श्रौर यथार्थ का कुछ झ्धघिक उद्घाटन हो पाता था, लेकिन उपमान योजना और भ्रप्रस्तुत विधान श्रतिशथ प्रयोग के कारण भाषा के केवल बाह्मा रूप से ही सम्बद्ध रह गए । यह भाषा श्रतुमूति कौ माषा न रहकर प्रनुभूतियों के सम्प्र की भाएा बन गर्द । श्रधिक उपमान योजनां के कारण सवेदना का कण्डन होता है, इसलिए कि उनके विस्तार का श्रापिक्य हो जाता है । एक ही श्रनुभूति को विस्तृत करने के लिए प्रचलित तथा अग्रचलित कई उपसानों के संग्रथन से श्रभुभूति की सत्यता श्रौर तीव्रता दोनों प्रायः विखण्डित हो जाती हैँ, जबकि रूपकों से ऐसा नहीं होता । रूपक से संवेदना खण्डित न हो कर समग्र हो जाती है। बिम्ब श्रौर प्रतीक इसीलिए सपभान योजना से श्रागे की स्थिति माने जाते ह, क्योकि इनसे संवेदना सरिडत न होकर समग्रता की ओर उन्मुख होती है । व्यक्तित्व का साक्ष्य प्रतीकों श्र बिम्वों में ज्यादा मुखर होता है, जब कि उपमान योजना में व्यक्तित्व के प्रति ईमानदारी स्थिर नहीं रह पाती । उपभान श्रम्रस्तुत विधान की विशिष्टता के पीछे अलंकरण की प्रवृत्ति का हाथ रहता है। डॉ० चतुर्वेदी ने ध्रपरस्तुत विधान श्रौर उपमान योजना को भाषा की बाह्य स्थिति से जोडते हए अपना विचार हसं भकार प्रकट किया है--श्नभरस्तुत विधान कविहा मे, उपमाचौँ का प्रयोग एवं संघटन ह, भापागत संघटन की दृष्टि से वह्‌ काफी ऊपरी स्थिति है) दूसरी ओर ध्वनि है लिका प्रयोग काव्यशास्त्रीय भाषा में व्यंग्यार्थ ( श्रथं की मौलिक विवेचना) के लिए होता है । भारतीय काव्य-शास्त्र की यहूं बहुत महत्वपूर्ण व्यवस्था है, पर प्रतीक था भावादिक का इससे कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं है । * शलंकत भाषा भर श्रलंकररण, की भाषा में अन्तर हैं । ये दोनों दो प्रकार के प्रश्न है भ्रौरं इतका उत्तर भी श्रलग-श्रलर दिया जाता ह 1 श्रलंङृत भाषा रचना की भाषा से सम्बद्ध है रौर भ्रलंकरण क भाषा भावों तथा विधारों की भाषा के सौंदर्यात्मक पहलू से जुड़ा एफ व्यापक प्रश्न है । एक उपपत्ति है तो दूसरी प्रक्रिया । श्रलकररण से तात्पर्य है कि क्या भाषा को सायास या श्रनायास श्रलंकृेत किया गया है ? लेखक जब किसी भ्राव्जेक्ट को देखता है, उसे देखने के बाद उसके मम में जो सौंदर्यानुभूति होती है, वह उसमें पाठक को भी भना साथी बनाना चाहता हैं, परिणामत: इन दोनों प्रक्रिया्रों की जटिलता में वह सपने निजी भ्रनुभव से भी प्रतिक्रिया करता है भर इसे उस रूप में भ्रनुभत्र करता हैं कि शभ्रपने आप ही उसमें सौंदर्य का पुट आ जाता है । सुरेन्द्र वारलिंगे ने वस्तु में ही रस की सत्ता स्वीकार की है । विष्य जन वस्तु वनता है तो उसमे कृचं न कु विशिष्टता आ जाती है भौर यह विशिष्टता वस्तुतः रूप से हौ सम्बद्ध है।२ श्रलंकरण श्रलंकृत करने बालें के बर्थ में प्रयुक्त होता हैं परन्तु श्रलंकरण की यह स्थिति कहत सीमा तक सर्जन- १. डॉ० रामस्वरूप चतुर्वेदी --भाषा और संवेदना, पू० १२८। २ सुरन रस्त्वं ॑प्‌० १६८1




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