कबीर काव्य कोश | Kabir Kavya Kosh

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Kabir Kavya Kosh by डॉ. वासुदेव सिंह - Dr. Vasudev Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कबीर काव्य कोश भक्रमाल--सज्ञापु० स० | मालिंगन अक- वार्‌। -अंक्रमाल दे भेटिए माँनौ मिले गोपाल । सा० साधघु० म० ३० दंनरे । . भंकुस--संज्ञा पु० सं०मकुश वघन रोक | भवन कोइ तेरे अंकुस लावै। - पद २७७०२ । मग--सज्ञा पु० स० लक्षण । --विषया सोन्यारा रहे संतनि का मंग एह । नरसा० साघ० सा० २६ १-२ । मंगिया--क्रि० सं० गगी कार स्वीकार किया । -दोजख तौ हम अंगिया यह डर नाही मुज्स । - पा० निद्द० पत्चि० ११ ७-१३ अँगीठ--पु० स० मस्त न भागने स्थ ठ्हरना आग रखने का बर्तेन मँगीठी । --जे सिर राखीं भापर्ना ती पर सिरिंज मेंगीठ । सा०मन० १३ ६-२ । अंचवन--संज्ञा पु स० भाचमन जल । छूतिद्ठि जेवन छृतिद्टि अंचवन छूतिहि जग उपजाया । - सब० १६६०७ ॥ मँचबे--क्रि० स० आचमन आचमन करता है पीता है। --वाझ पिंयाले अम्रित अंचव नदी नीर भरि राखे। नरेसब० देर-१३े । अंचवे--क्रि० स० माचमन माचमन करते हैं पीते हैं । तजि- अमृत | विख काहे को मेंचव गार्द। बाँधिन खोटा । - सव० १५८८-४५ । मंजुरी--सज्ञा स्त्री० स०भन्‍्जलि दोनो हथेलियो को मिलाकर बनाया गयां गड्डा । -तन घन जीवन मेंजुरी कौ पानी जात न लागे बार । - पद २०१३-४५ । मंड--सज्ञा पु० सं० ब्रह्माण्ड विष्व । एक अड सकल चौरासी भर्मं भुला संसारा । - पद २४१-३। मंड--संज्ञा पु० स० बीज । एक झड़ गओकार ते सब जग भयों पसार । न र० २७-८ । मण्ड--सच्ञा पु० सं० अण्डज । -प्रगठे भमण्ड पिण्ड ब्रह्मण्डा प्रिधिमी प्रगट कीन्हू नौ खण्डा । र० ३-४ । अत्तर--पु० स० अतस्‌ू भीतर हृदय 1 जीव रूप यक अन्तर-वासा अतर ज्योति कीन्द् परगासा। - र० प-१। अंतर-पु० सं० | मध्य । तन मन सौंपा पीव की तब अंतर रही न रेख । - सा० सु० ४५ दे७-र। मंतर--पु० | स० हृदय । --जे राचे वेहद्द सौं विन सौ अंतर खोलि । -रसा० चि० १२ ४०-२1 मंतर--पु० स० हृदय के भीतर । -जदि थिष पियारी प्रीति सी तब मन्तर हरि चाहिं । जब अन्तर हरि जी बे तब विषया सो चित नाहिं। £ सा०साघ०्सा० २६ १३०१-२1




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