सनेही - मण्डल के कवि | Sanehi - Mandal Ke Kavi

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Sanehi - Mandal Ke Kavi by डॉ. श्यामसुन्दर सिंह Dr. Shyamsundar Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कब्य-मण्डल की परिकल्पना और उसका विकास / १४ अवश्य प्राप्त होती है परन्तु वे मण्डलीय काव्य सुजन की प्रवृत्ति की अवघारणा से भिन्न दिखाई पड़ते हैं । अश्घुनिक हिंन्दी काव्य के पूष॑ समूह काव्य रचना की प्रवत्ति- सामात्यत आधुनिक हिन्दी काव्य का प्रारम्भ भारते्दु-युग से स्वीकार किया जाता हैं। स्वयं भारतेन्दु ने अपने काव्य-मण्डल का निर्माण कर आधुनिक हिन्दी काव्य में समूह काव्य सृजन की परम्परा का सवोन्मेष प्रस्तुत किया । परन्तु सम्पूर्ण हित्दी काव्य के इतिहास पर सर्दि दृष्टिपात किया जाय तो यह सहजतः अनुमानित होता है कि समूद काव्य सूजन की परम्परा मात्र भारतेन्दु के द्वारा ही नहीं प्रबर्तित हुई प्रत्युत इसकी श्रारश्भिक कड़ी आदि-काल के काव्य धारा में प्राप्त होती है। काव्य-मण्डल के निर्माण हेतू जिन पक्षों का पहले विवेचन किया गया है उनमें कवियों के राजदरबारी रूप को ग्रहण किया गया है । आदि-काल के प्रारम्भिक चरण में स्ाट हु्षबधेन की मृत्यु के पश्चात्‌ थवनों का आक्रमण उत्तरी भारत में प्रबल रूप में प्रारम्भ हुआ । परिणामस्वरूप राजपूत राजा इस्लामी शक्ति के सम्मुख निरन्तर युद्ध रत होने पर युद्धाग्नि में जलकर नष्ट हीने लगे । इस कारण इस्लामी सत्ता भारत में क्रमश उदय होने लगी 1 फलतः इस काल के हिन्दी काब्य में आक्रमणों एवं युद्धों के प्रभावों की मत ःस्थितियों के प्रतिफलन से युद्ध- परक एवं भारतीय राजाओं के सत्साहुबद्धंक वीर काव्यों का वर्णन दिखाई पड़ता है । इन राजनैतिक परिस्थितियों का प्रभाव यह पड़ा कि आदि-काल में कर्वियों के दी वर्ग बने । एक वर्ग का कबि राजाओं के साहस एवं वीरत्व भाव को जागुतत करते के लिए बीर गाथाओं के सुजन में तत्पर हुआ और दूसरे वर्गे का कथि इस राष्ट्रब्यापी विनाश लीला एवं नरसंहार को देखकर पारलौकिक तत्वों पर चिन्तन हेतु व्यग्र हुआ। फलेतः हुठयोग आदि से लेकर अस्य आध्यात्मिक विचारों के संवाहक सिद्धों जैनों_ और नायों के काव्य सामने आयें जिनके द्वारा हिन्दी काव्य में सर्वप्रथम आध्यात्मिक साधना पद्धतियों सामाजिक आडम्बरों के विरोध उपदेशात्मक विचारों और हुठयोग साधना पद्धतियों को अभिव्यक्ति मिली । सम्पूर्ण आदि काल में तीन प्रकार की मण्डलीय काव्य चेतना दुष्टिगत होती है । इन काव्य मण्डलों में साम्प्र- दार्धिक सिद्धान्त ही बहू के्द्रस्थ तत्त्व हैं जिनके प्रभाव से मण्डलीय काव्य सुजन की परस्परा का पहलवन होता हैं और अनेक कवि उन सिद्धान्तों को काव्यादधष मानकर उस परम्परा पर समूह काव्य का सृजन करते हैं। थे तीनों काव्य मण्डलों के फुष्ठाघार हैं. सिद्धनमत बेनत्मत मौर नाथ-मत




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