कबीर की भाषा | Kabiir Ki Bhasha

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Kabiir Ki Bhasha by माताबदल जायसबाल - Matabadal Jayasabal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ू वणग्रामिक अन॒शीलन + एप (108 9.० कवीर (सं० १४५६-१५७५) की काव्य (साखी-सवद-रमेनी) माषा के गठ- नात्मक अध्ययन ( पपा $क्पव ) के लिए सर्वप्रथम यह अवद्यक है, कि जिस लेखनप्रणाली में कवीर की मापा लिखित रूप में प्राप्त है उसका वर्ण- ग्रामिक विदलेषण कर लिया जाय । इस उद्दे्य-पूर्ति में सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि न तो कवीर ने स्वयं कभी कलस हाथ में घरा; न मसिकागद छुआ और न कत्ीर की समसामयिक हस्तलिखित प्रति हो मिली । भाषा की भाँति लेखन-प्रगाली में भी यदा-कदा मंधरगति से परिवतंन होता रहता है । कभी-कभी मापा तो विकसित होकर परिवतित हो जाती है; किन्तु परम्परा का प्रेमी लिपिकार लेखन-प्रयाली की प्राचीन पद्धति को ही अपनाएं रहता है और कभी-कभी परिवर्तेन-प्रेमी लिपिकार लेखन-प्रणाली में इतना अधिक परिवर्तन कर देता है, कि एक ही पदग्राम या ध्वनिग्राम को अभि- व्यक्त करने के लिए कर्ईप्रकारकी वतंनी ( 81061110 ) प्रचलति हो जाती है । जिसके माध्यम से प्राचीन भाषा के मूलस्वरूप को पहचानना अति दुस्साध्य हो जाता है। फिर भी किसी प्राचीन अथवा मध्यकालीन भाषा के भाषा वैज्ञानिक अध्ययन के लिए उसका समसामयिक या कालान्तर में प्राप्त लिखित रूप ही एकमात्र साधन है । अतएव ऐसे अध्ययन के लिए व्णंग्रामिक ( 8]01167016 ) विदक्ेयग माषा- गठन की प्रथम परत ( [€] ) दै । वर्णग्रासिक विरुलेबण का सहरंवपूर्ण पुनपंरीक्षण ( 16८ ) अन्य ध्वनिग्रामिक परम्पराओं यथा--मात्रा, बलाघात, सुराघात, तुक और छंदपूति आदि अन्य साधनों से हो सकता है । १.0 ना. प्र. स. द्वारा प्रकाशित तथा डा० इयामसुन्दर दास द्वारा संपादित कबीर १. वर्णग्राम ( प्रत्येक अभिलेख का लघत्तम लेखन रूपों ) (76105) में खंडोकरण ( 8616118.011 ) ही सकता है । ऐसे लघुत्तम लेखन रूपों को जिनका पारस्परिक अगमन वणंक्रम में अन्य किसी धत्तम लेखन रूप से संबंधित नहु होता वणंग्राम ( 7901611 ) कहा जाता है और जिन वर्णों का पारस्परिक आगमन वर्णक्रम में अन्य लघत्तम लेखन रूपों से पूर्णरूपेण पूर्वाभासित हो जाता हैं उन्हें सहवणंग्रास' ( 3110287870108 ) कहा जा सकता है । --हेनरी एम ० हेनिग्सवाल-लेग्वेज चेंज एण्ड लिग्विस्टिक्स अध्याय- २०२१ २. ससि कागद छुआ नहीं कलम घरी नरह हाय...




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