कर्त्तव्य कौमुदी ग्रन्थ | Kratavya-komudi Granth

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Kratavya-komudi Granth by रमानाथ शास्त्री - Ramanath Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मह्वलाचरणम्‌ र समभ सकता है । वस्तुतः सवन्नान का सार रूप एक परम विशुद्ध केवल ज्ञान रूप चैतन्य ज्योति इस झखिल विश्व में व्याप्त है, ऐसा वे मानते है, वद्च ज्योति केसी है? भठ़ हरि कहते हैं कि दिक्ालायनवच्छिचानन्त चिन्माचसूतंये । स्वानुभत्येकसाराय, नम शान्ताय तेजसे ॥ श्र्थात्‌ जिसकी सूति दिशा श्रौर काल इत्यादि से असर्या- दित हू अतएव अनन्त घोर चंतन्य रूप हूं, जा आत्मानुभव का एक सार रूप दे उस अनन्त प्रकाश को से नमस्कार करता हूँ । भतृहरि ने श्रपने नीतिशतक के प्रारम्भ में उस परम च्याति का नमस्कार करते हुए उसका स्वरूप ऊपर की तरद्‌ घटाया है। यहाँ पर भी अन्थकार ने उस 'एकसार' का स्तवन करके स्वाभी की सिद्धि के निमित्त, उसके आशीर्वाद की याचन) की है । इस मङलाचरण के श्लोकम इस परम व्योतिकंजो जो गुण दिखाये गये हैं उनसे कितने दी रदस्य छिपे हुए हैं । इस परम ज्योतिसे गौतम बुद्ध, शकर आदि महापुरुपो तेजन समाज को श्राकर्षित करन की विभूतिकोप्राप्र किया था। इस परम ज्योति से श्री ऋपभदेव आदि चौवीस जिन-तीर्थकर परि- पूर्ण शाख्त्‌ निर्वाणपद को प्राप्त हुए हैं इतना ही नही किन्तु इस परम ज्योति के झन्द्र झाखिल विश्व स्पष्ट रूप से दिखाइ देता है, जिस ज्योति से इतना चेतन्य-सामथ्य रहा हुवा है उस उयोति का एक अरपु भी यदि सनुष्य को प्राप्त ो जाय तो उसका कल्याण अवश्य दा सकता है । इसीलिए चेतन्य स्वरूप परम ज्योति का स्तवन करते हुए अन्थकार लिखते ई कि यह्‌ म्रन्थ- लेखन जो हमारा अरमीष्ट हे 1 उसकी ससिद्धि के लिये उस ज्योति का ्राशीवांद्‌ दमं प्राघ्र दो जौर इसीलिये श्रणमाम्यह त्रिकरसौ ”




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