कर्म - मीमांसा | Karm Meemansa

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Karm Meemansa by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कमे में नीति-झनीति का विचार छः व्यथवा हमें जो चाहिए वह सब सुख ही हो। लोक में सुख से छातिरिक्त के लिये भी तो हमारी चाह और प्रयन्न हुआ करते है। यदि प्रत्येक इष्ट को सुख दौर अनिष्ट को दुःख माना जावे तो सुख र दुःख की समस्या भी उलभन में पड़ जाती है; क्योंकि इंटर घ्यौर अनिष्ट भी तो वस्तुओं में सिर नहीं हैं। एक ही वस्तु किसी समय शोर समयान्तर से अनिष्ट है; किसी के लिये इष्ट और किसी के लिये अनिष्ट है। संसार की प्रत्येक वस्तु इषप्ट झथवा झ्यनिष््रूप से नियत नहीं है। उनमे चित्तवृत्तियों के भेद से इप्रा- निष्ट दोनों ही धमे हैं । कोई वस्तु केवल इष्ट अथवा केवल अनिष् नहीं है। फिर सुख क्या है ? प्रश्न ज्यों का त्यों बना रह जाता है । इस दिशा में एक दूसरा पक्ष भी है जो दुःख अथवा व्याधि के प्रतीकार को ही सुख मानता है| “जो प्रकाश नहीं वह अंधेरा है” की भांति ही इस पक्ष वाले सुख की व्याख्या दुःखाभाव से करते हैं । प्यास लगने पर उसका प्रतीकार पानी पीकर किया जाता है;. भूख लगने पर जो पीढ़ा होती है उसका निवारण भोजन खाकर किया जाता है, कामाझ़िजनित ताप को रति प्रसंग से बुकाया जाता है, इस प्रकार किसी व्याधि एवं दुःख का श्रतीकार ही सुख है। दुःख निवृत्ति के झतिरिक्त सुख कोई चीज नहीं है। इसी पक्ष की अ्रकारान्तर से पुष्टि इस विचारधारा से भी होती है. कि जब कोई तष्णा उत्पन्न होती है तब उसकी पीड़ा से दुःख होता है और उस दुख की पीढ़ा से पुनः सुख होता है। इस विचारसूत्र का विद्वदीकरण इस प्रकार किया जाता है कि मानव ,ढ़ृदय में पहले कुछ एक इच्छा, आशा वासना अथवा ठष्णा उत्पन्न होतीं है, उससे जब दुःख उत्पन्न होने लगता है तब उसके निवारण कोह्दी सुख कहा जाता है । यही सुख है और कोई भिन्न वस्तु सुख नहीं । इस घारणा की दृष्टि से विचार करने पर मानव की समस्त सांसा-- रिक केवल वासनात्मक एवं ठृष्णात्मक ही ठहरेंगी । वस्तुतः




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