सन्यासी और सुंदरी | Sanyasi Aur Sundari

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Sanyasi Aur Sundari by यादवेन्द्र शर्मा ' चन्द्र ' - Yadvendra Sharma 'Chandra'

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सौर स्वयं तोरण-द्वार की ओर उन्मुख हुई, उनके स्वागत हेतु । . मनु ने प्रवेश करते ही भव्य भवन की सजावट को देखा और तत्पश्चात्‌ र्पागार वासवदत्ता को । वह मनु के समक्न संकोच से गड़ी जा रही थी । दोनीं एक-दूसरे को कछ क्षण देखते रहे, अप्रतिभ-से, विमो- हित से । ः , वासवदत्ता को प्रतीत ह करि उसके समक्ष स्वयं काम खड़ा है, रति-पति अनंग--सुर्डौल, सुन्दर भौर सलोना । न जाने ` क्यों वासवदत्ता करी पलक धरती की ओर कुक गर्द । प्रणामके ` लिए कर आवद्ध हो गए। संकेत शीतर प्रवेश करने का हुआ मनु यंतवत्‌ भीतर प्रविष्ट हुजा । गद पर आसीन होते हुए मनु . ने मौन भंग किया, पह चानती हो श्रेष्ठ गणिके हमें ? “जी ` श्रीमन्त ! राजकीय उत्सव में यह मुद्रा आपने ही पहनाई थी 1“ उसका संकेत अंगुली कौ गोर था । यह्‌ भी जानती हौ कि हमने यह्‌ मुद्रा तुम्हे क्यौ पहनाई थी ?” मनु की आंखों में एक परिचित प्रश्न और उसका उत्तर ,. दोनों थे, तो भी वासवदत्ता के मुखारविद से सुनने हैतु उसने पसा पृषछा। रूप पर आसक्ति 1 थोड़ा कहकर वासवदत्ता मनुके समीप वेठ गई । मनु ने टेढ़ी भीहूं करके वाप्तवदत्ता को देखा । वासवदत्ता अपने हाथ की हस्त-रेखा को ध्यानमग्न-सी देख रही थी । . “मासुिति क्यों कती हौ ? क्या प्रेम नहीं ? “प्रेम का प्रादुर्भाव इतना सहज नहीं है श्रीमन्त ! गौर आसक्ति तो भाकपंग का प्रथम चरण है । मापने मुझे समारोह में एक दृष्टि-भर देखा और उस पर आपने अपना कौटुम्विक गौरव विस्मृत करके भरी सभा में यह मुद्रा पहनाई। ***मैं पूछती हूं कि आपने ऐसा क्यों किया ?” एक भआाग्रहू था उसके त 9४ क गप_




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