सर्वोदय तत्त्व - दर्शन जीवन मार्ग अहिंसा की प्रतिष्ठा तथा अहिंसक राज्य - व्यवस्थापका विशद विवेचन | Sarvoday Tattv Darshan Jivan Marg Ahinsa Ki Pratishtha Tatha Ahinshak Rajy Vyavstha Ka Vishad Vivechan
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
18 MB
कुल पष्ठ :
411
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)द सर्वोदय तत्त्व-दर्शन
इंग्लैण्डमें हआ था, जव उन्होंने दो अंग्रेज मित्रोंके साथ एडविन आनल्डके पद्य-
अनूवादका अध्ययन किया था । वादमें उन्होंने गीताकी अधिकांश महत्त्वपूण
टीकाओंका अध्ययन किया ! वहुत दिनों तक उन्होंने नित्य-प्रत्ति गीताका पाठ
किया ओौर निरन्तर साठ वर्पो तक उसकी दिक्नाके अनुसार जीवन यापन किया 1
२८ जुलाई, १९२५ को कछकत्तेमें ईसाई पादरियोंके सामने दिये गये अपने
व्याख्यानमें उन्होंने गीताके प्रति अपने प्रेमका प्रदर्णन इन दाव्दोंमें क्या थाः
“ यद्यपि मैं ईसाई-धमंकी वहुतसी वातोंका प्रण॑ंसक हूं, तथापि मैं अपनेकों कट्टर
ईसाई नहीं मान पाता । . . . हिन्दू धर्म, जैसा में उसे जानता हूं; मेरी आत्माकों
पुण रूपसे सन्तुष्ट करता है और मेरे सम्पूर्ण अस्तित्वमें ओतप्रोत है; और जो
वान्ति मुझको भगवद्गीता और उपनिपदोंगें मिलती हैं, वह ईसामसीहकों
' पर्वतकी धर्मशिक्षा ' में नहीं मिलती । जब मैं संदायों और निरानाओंसे घिरा
होता हूं और जव मुझे क्षितिज पर एक भी प्रकाल-रदिम् नहीं दिखाई देती, तव
मे भगवद्गीताकी ओर मृडता हं अर मुस सन्तोपके किए एक-न-एक दलोक
मिल जाता है और मैं तुरन्त घोर दुःखौमें मृस्कराने रुगता हूं । मेरा जीवन
बाहरी दुःखोसे पूणं रहा है और यदि उन्होंने मेरे ऊपर कोई अमिट और
दिखाई पड़नेवाला प्रभाव नहीं डाला है, तो उसके लिए में भगवद्गीताकी
रिक्षाजोके प्रति आभारी हूं । “'
गीता महाभारतका सर्वाधिक मूल्यवान अंश है। महाभारतके समान
गीताक्रा भी प्रतिपाद्य विपय अहिसा नहीं दै, जो “ गीत्तायुगके पूवं भी एक
स्वीकृत और प्राथमिक कर्तव्य ” था; ओर न यह् ग्रन्थ युद्धकी ही निन्दा
करनेके लिए लिखा गया है, जो उस समय हिंसासे असंगत नहीं समझा जाता
था।* इसी प्रकार यह हिसाका भी प्रतिपादन नहीं करता । गीताका विपय
है आत्म-साक्षात्कार और उसके साधन । दूसरे और अठारहवें अध्यायमें हमें
गीताकी आर्म-साक्षात्कार सम्बन्धी शिक्षाका निचोड़ मिलता है और वह
अनासक्तियोग या निष्काम कर्मका आदश । “ परन्तु फरुत्यागका अर्थं परिणामके
प्रति उदासोनता किसी प्रकार नहीं है। प्रत्येक कर्मके सम्बन्धमे मनप्यको
आनंवाले परिणामको, उस कर्मके साधनोंको और उसके करनेकी क्षमताको
अवश्य जानना चाहिए । जो मनुष्य इस प्रकार सक्षम होता है, जिसमें
परिणामकी इच्छा नहीं है और जो अपने सामने आये हुए कार्यको उचित
१. यं० इ०, भाग-२. पृ० १०७८-७९1
गीता और अहिसाके सम्बन्धके विषयमे देखिये गांधोजीका अनासकिति-
योग ' ओर 'गीताबोव ' तथा यं० ई०, भाग-२, प॒ ९०७, ९२०७-४०; हु०
२१-१- ३९) १० ४३०; दे-१०-३६, प० २५७ 1
२. दि गीता एकार्डिंग टू गांधी, पू० १२९; डायरी, भाग-है, प० १२६
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