सर्वोदय तत्त्व - दर्शन जीवन मार्ग अहिंसा की प्रतिष्ठा तथा अहिंसक राज्य - व्यवस्थापका विशद विवेचन | Sarvoday Tattv Darshan Jivan Marg Ahinsa Ki Pratishtha Tatha Ahinshak Rajy Vyavstha Ka Vishad Vivechan

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Sarvoday Tattv Darshan Jivan Marg Ahinsa Ki Pratishtha Tatha Ahinshak Rajy Vyavstha Ka Vishad Vivechan by गोपीनाथ धावन - Gopinath Dhawan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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द सर्वोदय तत्त्व-दर्शन इंग्लैण्डमें हआ था, जव उन्होंने दो अंग्रेज मित्रोंके साथ एडविन आनल्डके पद्य- अनूवादका अध्ययन किया था । वादमें उन्होंने गीताकी अधिकांश महत्त्वपूण टीकाओंका अध्ययन किया ! वहुत दिनों तक उन्होंने नित्य-प्रत्ति गीताका पाठ किया ओौर निरन्तर साठ वर्पो तक उसकी दिक्नाके अनुसार जीवन यापन किया 1 २८ जुलाई, १९२५ को कछकत्तेमें ईसाई पादरियोंके सामने दिये गये अपने व्याख्यानमें उन्होंने गीताके प्रति अपने प्रेमका प्रदर्णन इन दाव्दोंमें क्या थाः “ यद्यपि मैं ईसाई-धमंकी वहुतसी वातोंका प्रण॑ंसक हूं, तथापि मैं अपनेकों कट्टर ईसाई नहीं मान पाता । . . . हिन्दू धर्म, जैसा में उसे जानता हूं; मेरी आत्माकों पुण रूपसे सन्तुष्ट करता है और मेरे सम्पूर्ण अस्तित्वमें ओतप्रोत है; और जो वान्ति मुझको भगवद्गीता और उपनिपदोंगें मिलती हैं, वह ईसामसीहकों ' पर्वतकी धर्मशिक्षा ' में नहीं मिलती । जब मैं संदायों और निरानाओंसे घिरा होता हूं और जव मुझे क्षितिज पर एक भी प्रकाल-रदिम्‌ नहीं दिखाई देती, तव मे भगवद्गीताकी ओर मृडता हं अर मुस सन्तोपके किए एक-न-एक दलोक मिल जाता है और मैं तुरन्त घोर दुःखौमें मृस्कराने रुगता हूं । मेरा जीवन बाहरी दुःखोसे पूणं रहा है और यदि उन्होंने मेरे ऊपर कोई अमिट और दिखाई पड़नेवाला प्रभाव नहीं डाला है, तो उसके लिए में भगवद्गीताकी रिक्षाजोके प्रति आभारी हूं । “' गीता महाभारतका सर्वाधिक मूल्यवान अंश है। महाभारतके समान गीताक्रा भी प्रतिपाद्य विपय अहिसा नहीं दै, जो “ गीत्तायुगके पूवं भी एक स्वीकृत और प्राथमिक कर्तव्य ” था; ओर न यह्‌ ग्रन्थ युद्धकी ही निन्दा करनेके लिए लिखा गया है, जो उस समय हिंसासे असंगत नहीं समझा जाता था।* इसी प्रकार यह हिसाका भी प्रतिपादन नहीं करता । गीताका विपय है आत्म-साक्षात्कार और उसके साधन । दूसरे और अठारहवें अध्यायमें हमें गीताकी आर्म-साक्षात्कार सम्बन्धी शिक्षाका निचोड़ मिलता है और वह अनासक्तियोग या निष्काम कर्मका आदश । “ परन्तु फरुत्यागका अर्थं परिणामके प्रति उदासोनता किसी प्रकार नहीं है। प्रत्येक कर्मके सम्बन्धमे मनप्यको आनंवाले परिणामको, उस कर्मके साधनोंको और उसके करनेकी क्षमताको अवश्य जानना चाहिए । जो मनुष्य इस प्रकार सक्षम होता है, जिसमें परिणामकी इच्छा नहीं है और जो अपने सामने आये हुए कार्यको उचित १. यं० इ०, भाग-२. पृ० १०७८-७९1 गीता और अहिसाके सम्बन्धके विषयमे देखिये गांधोजीका अनासकिति- योग ' ओर 'गीताबोव ' तथा यं० ई०, भाग-२, प॒ ९०७, ९२०७-४०; हु० २१-१- ३९) १० ४३०; दे-१०-३६, प० २५७ 1 २. दि गीता एकार्डिंग टू गांधी, पू० १२९; डायरी, भाग-है, प० १२६




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