जीवन-दर्शन | Jeevan Darshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२ जीवन-दोन है ओर स्वक रुचि विध्यात्मकरूपसे “परमै अरुचि उतपन्न कलमे समये है । अरुचिका अर्थ ट्रप नहीं है और रुचिका अर्थ राग नहीं है. । 'परकी अरुचि संयोगको संयोग-काठमें ही वियोगमें बदठती है. ओर स्वकी रुचि वत्तेमानमें दी नित्य योग-प्रदान करती है 1 अतः वियोग अथवा निव्ययोग रुचि-अरुचिके समूहको मिटानेमे समथ दै रुचि-अरुचिके भिटते ही अचाह पद स्वतः प्राप्र हो जाता दै । हमसे बड़ी भूल यही होती है कि जो वास्तवभ अपना है उसमे अरुचि और जिससे केवछ मानी हुई एकता है उसमें रुचि उत्पन्न कर लेते हैँ । फिर चाहके जाठमें फँसकर जो करना चाहिये, वह नहीं कर पाते; अपितु जो नहीं करना चाहिये; उसको करने उगते हैं। उसके करनेसे ही हम कर्तव्यसे च्युत हो जाते हैं । कर्तच्यसे च्युत्त होते ही राग-ट्रेष उत्पन्न हो जाते हैं । राग-ट्रेष उत्पन्न दोनेसे जिससे जातीय तथा स्वरूपकी एकता है, उससे विमुखता ओैर जिससे केवर मानी हुई एकता है, उसमें आसक्ति दो जाती है, जो चाहको सजीव वनाने में हेतु दै । अव विचार यह्‌ करना दकि हम किसे अपना कट्‌ सक्त हैं? अपना उसीको +ह सकते हैं. जिससे देश-काठकी दूरी न दो, जो उत्पत्ति-विनारायुक्त न दो ओौर जो अपनेको अपने -ाप प्रकाशित करनेमें समर्थ हो; क्योंकि अपनेसे अपना वियोग सम्भव नहीं है और जो अपना नदीं हे उससे वियोग दोना अनिवार्य है। इस दृष्टिकोणसे वाद्य वस्तुकी तो कीन कहे शरीर, प्राण, न्द्रिय, मन च्रादिको सी अपना नहीं कद्द सकते । पर इसका अर्थ दूर ४




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