मैंने देखा | Maine Dekha

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Maine Dekha by भगवत शरण उपाध्याय - Bhagwat Sharan Upadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प क + ~ न. ० ग == ५ ^ ~ ० = <~ 7 -- ५ न+ लि काशी ९ के समीपस्य बनो मे ऋषियों के चरण' प्रतिष्ठित थे, जहाँ ऋषि ब्राह्मण चत्रियों और कभी-कभी विरोष कृपा होन पर वैश्यो को वेदाध्ययन कराते । मैने अपने प्राचीन नागरिकों मे जिनको श्राय गाली देते येः कमी जन- जन में मेद न देखा था परन्तु ्रार्यों की जनता में अनेकों स्तर थे; भुण्ड के कुण्ड पशु से भी गए बीते दास श्रौर त्रस ख्यक सेवक जिन्हें पढ़ने लिखने का तो अधिकार नहीं ही था. ग्रत्थगत बातें सुनने का भी श्धि- कार न था | अस्तु । | जनपद राज्यों की प्रसरलिप्ता श्रन्न की उपजने कम. करदी थी) सहस्राब्दियों से लूट श्र श्राहार की खोज में फिरते रहने वाले घुमक्रड़ों को श्राघार मिला था नहाँ वे श्रब बस गए थे आर जिस समृद्धि को वे अब भोगने लगे थे, उसने उन्हें प्रमादी बना दिया था । तलवार उठाने की उनमें न तो अब विशेष क्षमता ही रह गई थी न इच्छा ही | अब वे द्न्द्ात्सक चिन्तन मात्र करते थे, दाशंनिक वाद-प्रतिवाद मात्र श्रौर इस वाद-प्रतिवाद में, द्न्द्ास्सक चिन्तन में श्रग्रणी ये राज- कुलीय च्तत्रिय थे, ब्राह्मण ऋषि नहीं | इस प्रकार का चिन्तक केकयों में अश्वपति था; पंचालों में प्रवाइण जैचलि, विदेहों में जनक श्रौर सुभ काशी मे श्रजातशत | चारों ब्राह्मण ऋषि कुमाय को निरन्तर पने नए ज्ञान से विदग्ध करते उद्ालक श्रारूशि, याज्ञवल्क्य शमादि सभी ऋषि कुमार च्रपने ज्ञान के लिए उन्दी राजपुरुष्ों की आर ताकते थे । अजातशत्नु ब्लेरी नगरी का ही राजा था जिसने दृप्तिवालाकि को श्रपने प्रश्न से स्तब्घ और निरुत्तर कर दिया; निःसन्देह श्रात्मा अथवा शरीर में रहने वाले किसी ऐसे जीब्र की कल्पना जो बेधाभी है, स्वतंत्र भी है; खाता भी है, निराह्ार भी रहता. है, मारता भी नहीं, मारा भी नहीं जाता; नित्य है; श्रमर है श्रौर: शरीर के मरने पर फिर




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