सुधर्मा | Sudharmaa
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
294
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about आनन्दऋषिजी महाराज - Anandrishiji Maharaj
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)नव्यस निरन्तर बने रहना बहुत बड़ी
सिद्धी है। आत्म-विजेता, मनोविजेता सदा
शिखरपर बने रहते है।
साधु-समाज मे आपकी एक अलग छबि
बन गई।
साधुओं को आश्थ्चर्य होता, इतना सहजपन
कहीं संभव है?
इतना माधुर्य कि बार-बार जी
करे मिलने को।
इतनी विनम्रता कि मस्तक झुक जाए।
'जहाँ अंतो, तहा बाही-जहाँ
बाही तहा अंतो'
जैसे भीतर में वैसे बाहर में, जैसे बाहर में,
वैसे अंतर में, दुहरापन
उन्हें पसंद ही नहीं था।
दिखावा, छल, कपट, पाखंड, दंभ, ,
ओछापन कहीं नाम-मात्र को नहीं। साधुओं
ने अपना नेतृत्व इन्हें सौंप दिया। इतने
विश्वास, आस्था से कि जिनकी कोई
मिसाल नहीं। विश्वास था कि ये जहाज
कहीं भटकायेगा नहीं, डूबाएगा नहीं। समय
आने पर वे विषपान कर शंकर बन सकते
हैं। और वे बने भी। -
वे दीपस्तंभ बने। दीप रास्ता बताता है,
विना किसी उपेक्षा के।
भटकनेवाले अन्धेरे में तो क्या, प्रकाश में
भी भटक जाते है।
आचार्य श्री धर्मदीप बनें।
हजारों श्रद्धालुओं ने अपनी जीवन नैया
की डोर आचार्य श्री के हाथों में सौंप दी।
अपनी जीवन नौका को आनन्द के घाटपर
लगा दी, यह बहुत बड़ा विश्वास था।
विश्वास पाना, उसे
टिकाये रखना, इससे
बड़ा दुष्कर कार्य
नही)
जिन्होंने भी श्रद्धा, समर्पण, विश्वास दिया
उन्होने बेहिसाब पाया।
यह सब भक्त मन जानता है, जो शद्धो में
कथ्य नही।
भक्तो को उन्होने सिखाया, नामस्मरण
करो,
सत्संग करो, सेवाभक्ति करो, संसार ही
सबकुछ नहीं।
अन्तिम शरण धर्म है, भगवान है।
सम्प्रदाय में कभी उन्होने किसी को बांधा
नही।
वे सम्प्रदाय के सख्त खिलाफ थे।
वे जानते थे इस युग में सम्प्रदाय का जहर
समाज की नसों मे भरना, समाज के साथ
गद्दारी है। बचकानापन है, समाज को
तोड़ना है।
समाज को तोड़ना, महावीर का गुनाहगार
बनना है।
उन्होने प्रेम के अमृत से सोहार्द से संगठन
के स्वरौ से समाज की बगिया को सींचा।
इसी वजह से हर सम्प्रदाय के बड़े से बड़े
आचार्य-धर्मगुरु, सन्त उनके पास चले
आते! आनेवालै के मनपर आचार्यश्री के
विनम्र प्रेमभरे व्यवहार की गहरी छाप
पड़ती।
सही अर्थो मे वे युगपुरुष धे,
युगआचार्य थे।
आम जनता में जैन धर्म को उन्होंने
जनधर्म बना दिया।
स्मृति सौरभ पुष्माङ्क ९२/१३
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