कर्मयज्ञ | Karma Yagya
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2.18 MB
कुल पष्ठ :
152
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)करके ईश्त्रर से प्रार्थना किया करती, “कन्हैया को इन स्मियों की दुष्टि
से बचाना, मगवन् ! कंसे-कँसे तो घूरती रहती है।” फिर बालक पर ही
क्रोध आने तगता । सुझलाकर तरह-तरह से उसे घर मे ही बाघे रखना
चाहती । सीजती, कहती, “तू क ही नहीं जायेगा । यही बैठ ।”
“पर माता 1” कुनमुनाता, किसी वार रूदता ! भोजन अस्वी-
घाएर कैर देता । फहता, “मैं नहीं खाऊंगा ।”
क्यो नही ? दतना तो बनाया हे । तुझे खीर भाती है ना ? वह
भीं हैं।” यशोदा दुसराती, चूम लेती । वह गाल पोंछकर कहट्ठा, “नही ;
मुझे कुछ नहीं खाना । तुम मुझे खेलने नहीं जाने देती । मैं कुछ नहीं
खाऊंगा । सब यमुना तट पर खेलने जाते है। गेंद खेलते है, कुश्ती लड़ते
है और मुन्ने तुम यहां विठाले रहती हो? बस खा-प्ा ! कब तक खाऊं?
जब नही घाऊंगा !”
यशोदा समझाती, “वे सब तो उद्दड है, इसीलिए नहीं मानते, पर
तू तो अच्छा बेटा हे न मेरा । खा और यही बैठ । यहां घर में खेलने को कया
बुछ नहीं है? देख ।” फिर तरह-तरह के खिलौने ले आती, क्रहती, “यह
देख, राजा मी सूरत, अस्त्र सहित, यह लुभावनी गुड़िया भोर कंसे-
कैसे जीव ? कितनी मरते तो हैं। इन्ही से खेल ! अभी तू इतना बड़ा नहीं
हुआ कि नदी तढ पर जाकर सेता। इन सबसे खेलना, पहले वा ले । ”
कृष्ण रूठा हीं रहता । यशोदा समझा-समझाकर जब हारने लगती तो
रुआंसी हो जाती । एक ओर खड़े नंद बाबा हंसते, कहते, “तुम व्यर्थ ही
उसे रोके का प्रयत्न करती हो, यशोदो, भला हवा को कोई बाँध पाया
है? जलसरोत हथेली के थमि थमते है कही ? उसे खेलने की आजा दे दो +”
मन मारकर भाज्ञा देनी पड़ती उसे, पर जी धक्-धक् करता 'रहता।
करेगा भोजन करते ही वायुवेग से बाहर निकल भागता । यशोदा चिंता
ग्रस्त बैठी रह जाती ।
नन्द सांत्वना देते, “देवी, बालक है, किर बहुत चचल । भला उसे
/ है७
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