जैन दिवाकर जी | Jain Divaakar Jee

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Book Image : जैन दिवाकर जी  - Jain Divaakar Jee

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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इस पर सहज ही वे बने ~ अकेली कोमलता अनुशासक के लिए हानिप्रद है, कठोरता भी एकाकी यदि वह है तो भयावह है । शासक को तो कुम्हार की तरह होना चाहिये । तुमने कुम्हार देखा हैं न ? वह ऊपर से प्रहार करता है, किन्तु भीतर से अपने सुकोमल हाथ का दुलार देता है । चाणक्य-नीति अनुशासक को कठोर होने के लिए प्रेरित करती है, उसका कथन है कि अनुशासक को प्रतिक्षण कठोर रहना चाहिये । सूरज कठोर है, अत” ग्रहण उसे विशेष नहीं डसते; चाँद शीतल है, राहु उसे बार-बार ग्रसता है; किन्तु धमं कहता है किं अपने लिए कठोर बनों बज्च से अधिक; किन्तु अन्यो के लिए मक्छन-जैसे मृदु वनो । अनुशास्ता मयदिा-पालन कराने के लिए कठोर भी होता है, ओर कोमल-मृदु भी; किन्तु दोनों ही स्थितियों में उसमे परमाथ की भावना होती है, स्वार्थं की नहीं । हित की बुद्धि से किया गया अनुशासन ही लाभप्रद होता है।' मैने अन्त मे दिवाकरजी महाराज से निवेदन किया कि वे मुझे कुछ एम शिक्षाएँ दे, जिनसे जीवन में निखार आ सके । मेरे सिर प्रर अपना वरदानी हाथ रखते, वाणीं मे मिस्र घोलते वे बोले- 'देवेन्द्, तुम अभी' बालक हो, हम बूढ़े हो चले है । तुम्हे धर्मध्वज फहराने के लिए आगे आना है । याद रखो, विकास का मूल मन्त्र है विनय । विनय का स्थान विद्या सें कही ऊँचा है । विनय साधना की आत्मा है, वह जैन शासन का मूल है । तुम स्वयं विनम्र बनो, रुकना सीखौ । जो स्वयं झुकता है, कना जानता है, वही दूसरों को झुका सकता है । जो खुद नमता है, वहीं दूसरों को नमा सकता है | दूसरी बात - हमेशा मधुर बोलो, बिना प्रयोजन मत बोलो; वार्णी पर सदा संयम रखो । तीसरी बात - समय का सदा सदुपयोग करो । जो क्षण बीत जाते है, वे लौटकर नहीं आते । समय का दुरुपयोग करनेवाला जीवन-भर पछताता है ।” तुम्हारी उम्र पढ़ने की है, खूब पटो; जितना अधिक पढ़ोगे, बुद्धि का उतना ही अधिक विकास होगा । चौथी बात - आचारनिष्ठ बनो । आचार बिना, विचारों मे वैराग्य नहीं आ सकता । जिस दीपक मे जितना अधिक तेल होग।, वह उतना ही अधिक प्रकाश करेगा । आचार के तेज से ही विचारो मे विमलता आती है] दिवाकरजी महाराज की अमूल्य शिक्षाएं सुनकर मै चरणों मे नत हो गया; ओर आज जव भी उनकी उक्त शिक्षाएँ याद आ जाती है, हृदय श्रद्धा से छलक उठता है, विनय मे झुक जाता है । [] 'अपड़ लोग या तो' प्रतिज्ञा लेते नही, ले लेते है तो उसका दृढता से पालन करते दहै! आग भी जलाती है ओर कोध भी जलाता है, किन्तु दोनो से उत्पन्न होने वाली जलन मे महान्‌ अन्तर है। आग ऊपर-ऊपर से चमड़ी आदि को जलाती है, मगर क्रोध अन्तरतर को समाप्त करता और जलाता है। कोध कौ अभ्नि बडी जवदेस्त होती है । -मुनि चोथमलं चौ. ज. श. अंक २५




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