समय - सार | Samay Sar

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Samay Sar by सहजानन्द महाराज - Sahjanand Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हेतु जौव पुद्गलकमंकों भोगता है यह भी व्यबहारनयसे कहा जाता है । परमाथेसे जीव न तो पुद्गल कर्मको करता है झौर न पुद्मलकर्मंको भोगता है; क्योकि यदि जीव पुद्गल क्मंको भी करे व भोगे तो एकतो जीव ने अपने परिणामको किथाव भोगा मौर दूसरे पुद्गल कर्मकोभीकरया व भोगा तो हस तरह जीव दो दभ्योकी क्रियाका कर्ता बन जायेगा । दसा होनेपर चकि क्रियाका उस कालं तादात्म्य रहता है, इस कारण जीब व अजीवमें भेद नही रहा अथवा जीव अजीवमे से एक्का अयवादोनोका अभाव हो जायेगा इत्यादि अनेक अनिष्टापत्तियाँ हो जयेगी । एकद्रव्यदो द्रष्योकौी क्रियाका कर्ता है, ऐसा भनूभव करने वाला जीव सम्यष्ष्टि नहो, किन्तु मिथ्या | दृष्टि है । अर्थात्‌ वस्तुस्वरूपसे विपरीत हृष्टिवाला है । कमं उपाधिके निमित्तसे होने वाले क्रोधादिक ओपाधिक भाव है, उनका भी जीव सहज भावसे याने उपाधिको निमित्त पाये बिना कर्ता नही है । इन क्रोधादिक्‌ परभावोका कर्ता न तो जीव है और न कम; किन्तु बमंके निमित्तसे जोवके उपादानमे कोघादिक परिणमन होता है । जीव निज, सहज, चैतन्य स्वल्प व क्रोधार्दि परभावोंमे अन्तर नहीं समझता । इसी कारण यह बन्ध होता है यह मौलिक प्रकृत बात सिद्ध हुई । अब जिज्ञासा होती है कि इस बन्धका अभाव कँसे हो * समाघान--जीवकी परभावके प्रति कर्ताकर्म की प्रवत्ति होनेसे बन्ध होता था । जब कर्ता-कर्मकी प्रवृत्ति दूर हो जाती है तब बन्धका भी अभाव हो जाता है । ! प्रश्न'--इस कर्तानकमंप्रबुतिका अभाव कंसे हो जाता है ? उत्तर:--जब यह जीव आत्मामे व परभावमे इस प्रकार | से अन्तर जान लेता है कि वस्तु स्वभावमात्र होती है, में वस्तु ह, सो में भी स्वभावमात्र हू । स्वभाव कहते है स्वके होनेको, मे स्वज्ञानमय हू । सो जितना ज्ञानका होना है सो तो में आत्मा हू और फ्रोघादिका होना. कोधादि है, आत्मा (स्व) व क्रोघादि-आस्रवोमें एकवस्तुता नहीं है । जब जीव ऐसा आत्मा व आख्वमे अन्तर जान लेता है तभी कर्ता- कमंकी प्रवृत्ति दूर हो जाती है और कर्ता-कर्मकी प्रवृत्ति दूर होनेपर पुदुगल कमंबन्ध भी दूर हो जाता है । आत्मा और अनात्माके भेदविज्ञानसे उसी कालमे मालव्रको निवृत्ति होने लगती है । ज्ञानी जीवके इस प्रकारका विशद ज्ञान प्रकट रहता है--में आत्मा सहज पवित्र हू, शानस्वभावी हु, दुखका अकारण हु, सम हू, नित्य हु, स्वयशरण ह, आनन्दस्वभाव ह, किन्तु मरे आस्रव (परभाव) अपवित्र है, विरुद्ध स्वभाववाले है, दु खके कारण है, विषम हैं, अनित्य है, अशरण हैं, दु खस्वरूप है भौर इनका दुखहो फल है । मे एक हु, शुद्ध ह, मोह रागादि परभावरहिति ह, ज्ञानदर्शनमय हु, में (आत्मा) कमंके परिणमनकों व नोकर्म॑के परिणमनको नही करता ह । पृद्गलकमं परद्रव्यहै। मे परद्रव्यका ज्ञायकतो हु, किन्तु पर परद्रभ्यमे व्यापक नही हृं । अतत्त्व परद्रव्यकी पर्यायरूपसे परिणमता नहीं हू अर्थात्‌ में परद्रव्यकी परिणतिका कर्ता नही हू । में पुद्गलक्मकें फल सुख दृ खादिको जान ता सक्ता हू, किन्तु पूदूगलकमंकी परिणतिका कर्ता नही हू । इसी प्रकार पुदुगलकमं भी मेरा कर्ता नहीं है । अशुद्ध-निश्चयनयसे आत्मा तो मात्र भ्रपने अशुद्ध भावका कर्ता है, उसको निमिन पाकर पुद्‌गलद्रव्य कर्मरूप से स्वय परिणम जाता है । जैसे कि हवाके चलनेंके तनिमित्तसे समुद्रमे तरग उठती है । निश्चयसे तरंगोका कर्ता तो समुद्र ही है, हवा तो उसमें निमित्त है । हवामे हृवाका कार्य है । समुद्र समुद्रकी परिणति है । (त्न्यक द्रव्यकी स्वतन्त्र सत्तात्मकताके ज्ञानसे कमंबन्ध रुकता है और परकों आत्मा मानने व॒ मात्माको पररूप माननेसे कर्मका वध होता दहै} अथवा परको आत्मा माननेवाला अज्ञानी जीव क्मंका कर्ता होता है । वस्तुत तो अज्ञानी भी कमंका कर्ता नहीं है, परन्तु अपने अशुद्ध भावका कर्ता है । उस अशुद्मावकों नि्मित्त पाकर कमंका भाख्रव स्वय हो जाता है । वस्तुन. कर्मासरवकरा निमित्तरूपसे भी जीव कर्ता नहीं है, किन्तु उसके योग व उपयोग जो कि अनित्य है, वे अनित्य परिणमन ही वहाँ निमित्त है । क्योंकि यहू वस्तुस्वभाष अटल है--फि कोई द्रव्य, किसी मन्य द्रव्यकेरूप पा मन्यके गुण-पर्याय रूप नृह्ी हो सकता । इसलिये यह सुप्रसिद्ध हुआ कि आत्मा पुद्गलक्मका कर्ता नहीं है । यहाँ दो दृष्टियोसे यह निर्णय करना चाहिये--( १) निश्चयनयसे जीव पुदगलकर्मका कर्ता नहीं है। (२) व्यवहारनयस जीव पुद्गलकमंका कर्ता है । (१) निश्यचयनयते जोव पृद्गलकर्मका भोक्ता नही है । (२) व्यवहा रनथसे जीव पुद्मलकमंका भोक्ता है । (१) निश्चयनयसे जीवम पुट्‌गलकमं बद्ध नही है । (२) ग्यवहारनयसे ( १४)




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