श्रीरामकृष्णलीलामृत भाग - 2 | Shriramkrishnalilamrit Bhag - 2

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Shriramkrishnalilamrit Bhag - 2  by पंडित द्वारकानाथ तिवारी - Pandit Dwarkanath Tiwari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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४ श्रीरामछृष्णली लामुत के ठिए साधक योग, तपस्या आदि करता है, उसे ही जब वे प्राप्त कर चुके या अपना चुके तत्र फिर और साधना की क्या आवश्यकता ! इसकी चर्चा एक बार इसके पूर्व एक दृष्टि से की जा चुकी है, तथापि इस सम्बन्ध में और भी एक दो बातें हम पाठकों को बताते हैं। श्रीराम- कृष्ण के चरणकमलें के पास बैठकर उनके साधना-इतिहास का मधघुपान करते समय हमे भी यही राङ्क हई ओर जव हमने उसे श्रीरामऊृष्ण के पास प्रकट की, तत्र वे बोटे- “देखो, समुद्र वै, किनारे सदा निवास करने वाले व्यक्ति के मन में भी कभी कभी यह इच्छा हो जाया करती है कि देखें तो भला इस रह्नाकर के गभे में कैसे वैसे रत्न हैं। उसी प्रकर माता को प्राप्त कर ढेने पर और सदा उसके साथ रहते हुए भी उस समग्र मेरे मन में ऐसी इच्छा उत्पन्न हो जाती थी कि अनन्तभावमयी अनन्तरूपिणी माता का भिन भिन्न भावों और भिन भिन्न रूपों में मै दरीन कर । अतः जिस समय जिस विशेष भाव से या रूप में उसके द्रीन की इच्छा मुझे होती थी उसी भावया रूपमे दशन देने के छिए मैं व्याकुल अन्त:करण से उसके पास हठ पकड़ता था और मेरी दयामयी माता भी उक्ती समय अपने उस भावसे दशन देने के लिए जिन जिन वस्तुओं की आवश्यकता होती थी उनके संग्रह का सुभीता स्वये करा देती, मेरे द्वारा अपनी यथोचित सेवा करा टेती ओर मुद्र मेरे वांछित भाव या रूप में दरोन दे देती थी ! इसी प्रकार माता ने मेरे द्वारा भिन्न भिन्न मतों की साधनाएँ कराई | हम पहले कह चुके हैं कि मधुरभाव में सिद्ध होकर श्रीरामडरप्ण भावसाधना की अन्तिम भूमिका में पहुँच गये थे । तदुपरान्त उनके मन में सब-भावातीत वेदान्तोक्त अद्वैतभाव की साधना करने की प्रबल




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