हिन्दी - जैन - साहित्य - परिशीलन भाग - 2 | Hindi - Jain - Sahity - Parishilan Bhag - 2

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Hindi - Jain - Sahity - Parishilan Bhag - 2  by नेमिचन्द्र शास्त्री - Nemichandra Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आर्षो अध्याय वर्तमान काव्यधारा ओौर उसकी बिभिन्न प्रदरत्तियां टिन्दी जेन सात्यकी पीयूपधारा कल-कर निनाद करती हुई अपनी शीतलतासे जन-मनक्रे सतापको आजमी दूर्‌ कर रही दै। इस बीसवी ग्रतान्दीमे भी जेन साहिखनिर्माता पुराने कथानकोको केकर दी आदु- निक जली ओर आघुनिक माप्रामे दी सृजन कर रहे है । भक्ति, व्याग, वीरनीति, शर गार आदिः विप्रयोपर अनेक ठेलकोकी ठेखनी अविराम रूपसे चल रही है । देश, कार ओर वातावरणका प्रभाव इस साहित्यपर भी पडा है 1 अतः पुरातन उपादानोमे थोडा परिवर्तन कर नवीन काव्य- भवनोका निर्माण किया जा रहा है । मदहाकाव्योमे वर्धमान इस युगका श्रेप्ठकाव्य है । इसके र्चयिता यशस्वी कवि अनूप शर्मा एम, ए. है । इस महाकाव्यकी शैली सस्कृत काव्योके अनुरूप है । सस्कृतनिष्ठ हिन्दीमे वशस्थ, ट तविरस्वित ओर मालिनी इत्तोमे यह स्वा गया है । उसमें नख-शिखवर्णन, प्रभात, सथ्या, प्रदोप, रजनी, ऋठ, सूर्य, चन्द्र आदिका वर्णन प्राचीन काव्योके अनुसार है । इस महाकाव्यका कथानक भगवान्‌ महावीरका परम-पावन जीवन है । कविने स्वेच्छानुसार प्राचीन कथाचस्तुम हेरफेर भी किया है । दो- चार स्थलेकी कथावस्तुम जैनधर्मकी अनभिशताके कारण वेदिक-धर्मको स त्रैटाया ह} मगवानकी चाल्न्रीटाकै समय परीक्ना्थं आये टृए देवस्पी सर्पका दमन्‌ ठीक कृष्णके कारिय-दमन के समान कराया है । सर्पकी भयकरता तथा उसके कारण प्रकृति-विश्लुष्घता भी लगभग वैसी ही है] कचि करता है । चर्मान कघावस्तु




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