ब्रह्मचर्य | Brahmnacharya

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Brahmnacharya by छोगमल चोपड़ा - Chhogamal Chopada

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१९ वष होता दै भौर मनुष्य घोर ओर दुस्तर संसार-सागर मे गोते खाने छता है! इसलिए भनेक दोप पूणं शरौर-विभूषा को व्रह्मचारी सेत्रन नदीं करता ।° ८ १० ) कामभोग-संयम : १५-्रदमचारी शब्द्‌, रूप, गध, रस ओर स्प --दन पच प्रकार कै इन्द्र्यो के बिषयों का सेवन सदा के छिए छोड़ दे। देवों से लेकर समग्र लोक के दुख इत्द्दी विषर्यों की आसक्ति से उत्पन्न होते हैं। वीतराग; शारीरिक व मान- सिक -सवं दुःखो का, अस्त कर सकता दै }° जिस तरह स्वाद मे मधर छगने वाले और मनोहर किंपाक फछ पचने पर भाचखिर प्रार्णो का अन्त करते हैं, उसी तर शुरू-शुरू में अच्छे और आनन्ददायक सादूस पड़ने पर भी काससोग परिणास में ब्रह्मचारी के लिए घातक दोते हैं! चकु रूप को प्रहण करता है और रूप चक्षु का प्राह्-विषय दै । जिस तर रागातुर पर्तगा दीपक की ज्योत्ति में पड़ कर अकाछ में ही मरण पाता है उसी तरद रूपमें आसक्त घ्रह्मचारी शी्ही अपने ब्रह्मचयं को खो बेठता है । कान शब्द्‌ को प्रण करता है और शब्द कान का विषय दै। जिस तरद संगीत में मूच्छित रागातुर हरिण बींधा जाकर भकाखमे दी मरण पता दै उसी तरह शर्ब्दो मे तीत्र आसक्ति रखने वाला पुरुप शीघ्री अपने ब्रह्मचर्य को खो बैठता है. । । नाक गन्ध को म्रदण करता है और गन्ध नाक का विषय है। जिस तरदं षधि की सुगन्ध मे भासक्त रागातुर सपं पकडा जाकर, भकार में हो मारा जाता है उसी तरह से खुगन्घ में तीव्र आासक्ति रखने बाला व्रह्मचारी शोघ्रही सपने घ्र्मचयं को खो बेठता है । जिद्धा रस को श्रदण करती दै और रस जिह्ा का विषय दहै। जिस तरह मसि मेँ आसक्त रागातुर मच्छली रोदे के कटे से मेदी जाकर अकाछमेद्ीमारी जाती है उसी तरदद रसमें तीत्र मूर्च्छा रखने बारा ब्रह्मचारी शीघ्र ही व्रह्मचर्य को खो चेठता है । १--दस० ६६६ » र-द० ६।२७ , ३- उत्त १६ नो १०; उत्त० ३९१९ ५ ४-उस० ३९३० >




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