प्राकृत भाषाओं का व्याकरण | Prakrit Bhashaon Ka Vyakaran
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
37 MB
कुल पष्ठ :
1153
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)~ ५ ~
साथ पैगाची से सबधित चौददद॒ विशेष सूत्र भी हैं । ये चौदह विगेप सूत्र तो पैशाची
महारा से अधिक द बौर पेयाची की स्पष्ट विशेषताएँ है तथा उन्हें बताने दिये गये हैं ।
इसी प्रकार , अन्य प्राक्त भाषाओं पर जो विशेष सूत्र दिये गये हैं, उनकी
दा समझिए, |”?
--ञोल्वी नित्ति कै प्रथ, प° १,२ ओर ३
“मुख्य प्राकृत के सिवा अन्य प्राकृत भाषाओं को निकाल देने और
प्राकृतग्रकागः के भामह-कोवेल-सस्करण में पॉचवें ओर छठे परिच्छेदों को मिला देने का
कारण और आधार वररुचि की टीकाएँ और विगेपत. वसतराज की प्राकृत
सजीवनी है ।
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कौवेल ने भामद्द की टीका का सपादन किया है । इसके अतिरिक्त इधर इस
ग्रथ की चार टीकाः ओर मिली दै, जो समी प्रकागित कर दी गई हैं |
वसतराज.की प्राङत सजीवनी का पता बहुत पदले-से रग चुका है । कर्ूर-
मजरी कै टीकाकार वसुदेव ने इसका उस्छेख किया है । मार्कण्डेय ने अपने प्राङ्रतसर्वस्व
में ल्खिा है कि उसने इसका उपयोग किया है । कौवेल और ऑफरेष्ट ने प्राकृत के
सबध मे इसका भी अध्ययन किया है। पिगल ने तो यद्दों तक कहा है कि प्राकृत-
सजीवनी कौवेल के भामद्द की टीकावाले सरकरण से कुछ ऐसा श्रम पैदा दोता है कि
प्राकृत-सजीवनी एक मौलिक और स्वतच्र प्रथ है । इस टीका की अतिम पक्ति में लिखा
है--'इति वसन्तराजविरचिताया प्राकृतसंजीवनीदृत्ती निपातविधिर् टमः परिच्छेदः
समास' । र्चयिता ने प्राकृत सजीवनी को इसमें “दत्ति” अर्थात् टीका बताया है |
पिगल ने अपने ग्रन्थ ( प्राकृत भाषार्ओं का व्याकरण $४० ) में इस लेखक का
परिचय दिया है । यदि दम पिदाल की विचारधारा स्वीकार करें तो प्राकृत-संजीवनी
का काल चौददवीं सटी का अत-काल और पन्द्रहवीं का आरभ काल माना
जाना चाहिए, ।
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यष्ट टीका भामह-कौवेल-सस्करण कौ मू को झुद्ध करने के लिए बहुत अच्छी
और उपयुक्त है । कुछ उदाष्टरणो से टी माटम पड जाता है कि इससे कितना लाभ
उठाया जा सकता है १ इसमें अनेक उदाहरण दै ओर वे पुराने लगते है।
वहुखस्यक कारिकार्णे उद्धत की गई हैं। इनमें से कुछ स्वय भामह ने
उद्धुत की दै । इनसे पता लगता है कि वररुचि की परपरा में बढ़ी जान यी |
इसकी सष्टायता से वरस्चि के पाठ में जो कमी है, वह पूरी की जा सकती है |
यह वात ध्यान,देने योग्य है कि वसतराज ने वररुचि के सूरो की पुष्टि मे अपना कोई
वाक्य नहीं दिया है । करी कदी छीन-दुट, एक-दो शब्द या वास्य इस प्रकार कै
मिलते हैं, वे मी बहुत साधारण ढंग के । वसंतराज ने किसी पाङ्तव्याकरणकार के नाम
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