हिन्दी रसगंगाधर भाग - 3 | Hindi Rasagangadhar Bhag - 3

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Hindi Rasagangadhar Bhag - 3 by श्रीपुरुषोत्तम शर्मा चतुर्वेदी - Shree Purushottam Sharma Chaturvedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १४ ) ५श्रलंकारत्वं च रसादिवग्यङ्ग्यभिन्नत्वे सति शब्दार्थान्यतरनिष्टा या विषयतासम्बन्धावच्छिन्ना चम्कृतिजनकतावच्छेदकता तदच्छेदकस्वम्‌।> इस लच्चण में साहित्यसार फी शेली के श्रनुघार रसादि से भिन्न तो कहा ही, पर व्यङ्गयो से भिन्न होना चनौर समाविष्टकिया गया है, श्र्थात्‌ कुबलयानन्द के ठीकाकार ( श्रलंकारचन्द्रिकाकार ) के दिखाब से कोई भी व्यज्ञय कभी श्रलंकार नदी हो सकता । पर इस बात का रसगंगाघर सें बार बार खंडन किया गया है श्रौर कहा गया दे कि व्यज्ञ्यो के श्रलंकार होने मे कोई बाधा नहीं, श्रतः इस श्रंश को छोड़ने पर साहित्यसार के लच्वण मं शरोर इस लक्षण मे किञ्चित्‌ भी मेद नहीं रह जाता। काव्यप्रकाशकार श्रौर उनके श्रनुयायी साहित्यदपंणुकार ने अलंकारों के कुछ श्रन्य प्रकार के लच्वण बनाए ३ । काव्यप्रकाशकार ने लिखा है-- 'उपछुवन्ति त॑ सन्त येज्नद्वारेण जातुचिद््‌ । हारादिवदलषङारास्तेऽनुप्रासोपमादयः ॥ शब्द श्रोर श्रयं के द्वारा श्र्थात्‌ शब्द श्रौर श्रथ में विशेषता उन्न करके जो घमं यदि रस हो तो उसका मी उपकार करते ई श्रथोत्‌ उका भी चमत्कार बढ़ाने में काम देते हैं; वे श्रलंकार हैं, जैसे कि द्ारादिक कणठ श्रादि के उत्कष के द्वारा देहघारी का उत्कर्ष करते ह । सारांश यह फि यदि रख हो तो उसका उत्कषं करं, श्रन्यथा केवेल उक्ति की विचित्रता में खमाप्त हो जांय ऐसे शब्द श्र श्रथ के दारा रख के उपकारकं धर्म को श्रलंकार कते ई 1 सादित्यद्पंणुकार ने इसी का श्रनुवाद-सा लिखा है । वे कहते हैं कि--




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