जैन धर्म - मीमांसा भाग - 3 | Jain Dharm - Maminsa Bhag - 3
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13 MB
कुल पष्ठ :
372
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)सम्यक्च कास्प] ` [ ११
है उनके उपर हमरे परिणामो का ही ञच्छाया ठेस प्रमाव पः
सकता हे, न कि बहिर कर्योका| - ......
--दसरे के अभिप्रायो का हमारे ऊपर प्रभाव अधिक पडता
है । एक वालक को प्रेमपर्वक बहुत जोर से थप्रथपाने पर भी वह
प्रतन होता है, परन्तु क्रोध के साथ उंगली :का स्परी भी वह सहन
नहीं करता | यदि हमारे विषय में किसी के . . अच्छे भाव होते हैं,
तो हम प्रसन्न होते हैं. और बुरे भाव होति दहै. तो अप्रसन्न हेते है
इसलिये हमको भावना की झुद्धि करना चाहिये |
_ म्क्न-यदि भावयुद्धि के ऊपर ही. कतेव्याकंतव्य, चांरित्र
अचास्त्रि का. निर्णय करना है तो ' सार्वत्रिक और. सार्वकालिकं
अधिकतम प्राणियां,का अधिकतम सुख देने वाली, नीति” को कर्तव्य
की कसौटी क्यों बताया १ भावना को ही कसौटी बनानां चदि |
उत्तर-भावना की म्यता होने पर भी -कतेन्याक्तन्य कौ
निणय करने के लिये किसी कसौटी की आयश्यकता बनी ही रहती
है | उदाहरण के. स्थि, कुरुक्षेत्र मे अञुन की .मावना.जुद्ध होने
प्र भी. वहे यह नही समञ्च सकता था- क्ति इस .समय^ मेसं कत्य
क्या इ १ भावना कां वडा मारा उपागता. यहा. ह. कं उपयुक्त
नीति का ठीक ठीक पालन हो ।: हाथ पेर. आदि - समी, अग .ठीकं
- ठीक काम कर, इसके छिये. प्राण की आवश्यकता है. अकेले राणं
कुछ नदी ` करः सक्त, साथ -दी.. प्रणहीन इरीर . मी व्यथ ह| “इसी
मक्रार् उप्रयुक्त. करौटीः.- त हो. तो मावशुद्धि ` होने. पैरःमी. चासि
का पालन नदी हों सकता; ओर् मावञ्यद्धि.. न होने पर, उपयुक्त
नीतिं का 'पाठन भी असंभव है: । :इसंछियें भावंपूर्वक उपरक्त, नीति
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