जैनधर्म - मीमांसा | Jaindharm - Mimansa

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Jaindharm - Mimansa  by दरबारीलाल सत्यभक्त - Darbarilal Satyabhakt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सस्यश्न [ ५ दंड दे ? पएतु ईश्वर जगन्कृ्ता माननेसे इनका और ऐसी अनेक शकाश्ा का सम्रावान हो गया ।-परन्तु इंश्वर. -जगत बनावे, रक्षण करे और दंड दे; ये काय सत्रज्ञ हुए बिना नहीं हो सकते | इसलिये जगलकतृत्व के लिये सबज्षता वी कल्पना हुई । परन्तु कुछ सयाल़िपी ऐसे भी थे जो, इस प्रकार की कल्पना से संतुष्ट नहीं थ। ईंश्वए क्रीमान्मता: में जो,वाधाँर थीं और हैं उन्हें दूरःकरना कठिन था फिरमी -शुमाशुम ,कर्तफल .क्ती व्यवस्था बनसक़ती थी | उनका कहना था कि प्राणी জী লিন प्रकार के सुख-दुःख भगत हैं, उनका:कोऋ ,भद्ृट् ,कारण 'अनवुद्य होना चाहिये, क्लिल्तु बह ईश्वर नहीं हो सकता; क्योंकि प्राणियों। को जो दुःखादि दंड,मिलता है वह .करिसी न्याग्राधीश की दंडग्रणार्ली ,से नहीं;मिलता, किन्‍्त प्राकृतिक दंडप्णाली से- मिलता -है । अपध्य- भोजन जैसे धरे पैरि मनुष्य .की जामार .बना देता है उसी प्रकार प्राणियों को पुण्र-पाप-फछ भोगना पड़ता है । इस प्रचार पुण्य-पाप फल ग्राकृतिक हैं । ऐसे विचाखाले छोगों की परम्परा में ही सांख्य, जन ओर वद्ध दक्षन हुए हैं। . . ` ' इन- लेगेनि जब ईश्वर की न माना तब इंश्ररवादियों की तरफ से इन छोगों के ऊपर खब आक्रपण हुए | उन छोगों का-कंहना था कि जव तुम ईंश्व( को नहीं मानते तब पृण्यपाप का फल मिलता है, यह कैसे जानते हो ए क्या तमने परलोक देखा है ? क्या तुम्हें प्राणियों के कम दिखाई देते हैं !'क़्या तुम्हें कमक़ी शक्तियों का पता। है ?.इन सब ्रक्नो-का.सीधा उत्तर-ता 4ह- था कि - हमें व्रिचार /करने से :इन्त बातों का-पता लगा है ।-परन्तु वह;चुग-ऐसा-था-कि उस समय की जनता'




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