व्यक्तिगत जीवन व समाज संगठन की महती समस्या का समाधान वैदिक वर्णाश्रम व्यवस्था | Vyaktigat Jivan V Samaj Sangathan Ki Mahati Samasya Ka Samadhan Vaidik Varnashram Vyavastha

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Vyaktigat Jivan V Samaj Sangathan Ki Mahati Samasya Ka Samadhan Vaidik Varnashram Vyavastha by धर्मेन्द्रनाथ शास्त्री - Dharmandranath Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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'व्यत्तिगत जौवन वे समाज संगठन १६३ पि म भि बाधक ना मि म भ ज था ज जन भ ००००८ भ ०००००११ समाज फ श्रधिकारों का संप्राम हुआ है--उस व्यक्तिगत अधिकार शरीर मारतीय साहित्य में व्यक्तित्व की जो प्रधोनतों है, उन श्वानो मं मदान्‌ श्रन्तर है। पश्चिम में चाहा सां तारिक रिह वद विवाद घाछृतिक भोग के पिपय में है । थे व्यक्ति वो देश य) सष्टरकं किये श्रपने सार्थो दो श्र्थात्‌ -श्रपने व्यक्तिगत गेन्द्रियिक या शारीरिक सुख को कहां तक छोड़ना चाहिये £ प्रस्न्तु भारतीय साहित्य के “व्यक्तित्व” में प्ाध्यात्मिक दृष्टि हैं । श्रौर श्ाध्यात्मिकता को प्रधानती दी गई हैं नफिव्यसि क्रे शारीस्कि सुख घाथवा साँसारिक् सीचन की । इसे कुछ गद्दराई तक समभकना श्ावश्यक है - भाय्तीय समाज्शास्त्र, राजनीतिश ख या जीघन के घत्येक 'चिमाग का स्वरूप निर्णय दाशसिक चुद्धि से हु है। प्रत्येक चस्तु साक्ताव्‌ या श्रतात्तात्‌ सर से धक दार्शनिक उद्देश्य तक जो मानच जोवम का ्रन्तिम लश्य है पहुंचाने याली है । इस लिये यदि दम भारतीय ट्रंप्टि से किसी घस्तु को गदरी मींमांसा करना चते है तो कम से कम पङ प्ण के लिये मे दशन शस्व कोक्तंत्रमें श्वे कयना होगा। हमारे जीब्रन का श्रन्तिम, चग्स, उदेश्य धया ज्यक्तिगत है श्रथन समाजसम्रन्धी १ इस प्रश्न का निश्चित श्रसन्दिग्ध उत्तर कि 'व्यक्तियत', क्योकि चारै टम अग्वनके किसी तत्र में दो, श्रार्यसंस्कति वारम्बार पुकार कर कहती है कि हमारा अन्तिम ध्येय इसासांलारिक जीवन को पार करके परम पद सक पहुंचना है '्रौर इसी जन्म में पहुंचना है।




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