प्रभु - मिलन की राह | Prabhu Milan Ki Rah

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्रभु-मिलन को राह में ५१६ चुम ही पागल नही, मैं भी पागल हूं ।” और पागलो ने इस तरह तालियाँ वजाई जेसे निहाल हो गए हो। उन्होने समभा कि एक भौर पागल हमारे पास भ्रा गया। श्रन्ततोगत्वा पागलपन भी तो मस्ती का एक श्रालम है। स्वामी रामतीर्थेजी कालेज मे पढाते थे । अच्छी-मली नौकरो थी, अच्छी- खामी श्राय थी । मौज में झाए तो एक दिन नौकरी छोड़कर घर में भ्रा गए । मित्रो-सम्बन्धियो ने कहा, यह्‌ क्या किया श्रापने तीर्थेराम जो ? घर में पत्नी है, नन्हा-सा बच्चा है । श्राप नौकरी छोड श्राए हैं । इनका भरण-पोपण कँसे होगा ”” सब लोग कहते थे कि तीथेराम पागल हो गया है। तीर्थरामजी ने हँसते हुए कहा, “ठीक ही तो कहते है सब लोग ! किन्तु पागल होने मे बुराई क्या है? इन्हीं बिंगडे दिमागो में 4 के मरे लच्छे हैं। हमें पागल ही रहने दीजिये, हम पागल ही मते 1 वादमे जव उन्होने सन्यास लिया तो तीर्थरामः से उनका नाम रामतीर्थं हुप्रा । श्रौर मेरे श्रपने पागलपन कौ बाते! घर वार, वच्चे-वच्चिर्या, घन दीलत, मौटर-तागि सवको छोडकर मँ सन्यासी हरा तो हरिद्र से होकर गगोत्तरी पहुँचा । हरिद्वार मे रहते थे एक सज्जन--सरदार हुकमर्सिहजी, इमारती लकडी के व्यापारी । हर वार जय मैं हरिद्वार जाता या हरिद्वार से होकर निकलता तो उनसे जरूर मिलता । किन्तु सन्यास लेने के वाद हरिद्वार होकर जाने पर उनसे नहीं मिला। उन्होंने मुझे गगोत्तरी को पत्र लिखा कि “यह तुमने क्या किया ? पहले मुझे मिले दिना हरिद्वार से गुजरते नही थे, श्रव वी वार क्यो नहीं मिले ? मैं तुमसे एक बहुत झावश्यक वात पूछना चाहता था । अब पत्र के द्वारा पु रहा हैं । तुम मुझे बताश्रो कि तुम्हारे बेंट बहुत भच्छे हैं, येंटियाँ श्रच्छी हूँ, पत्नी भी भली है । कारोबार भी अच्छी तरह चलता है। घन-दौलत की तुम्हे कमो नहीं थी । प्रमु-भक्ति का प्रचार तुम




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