श्रमण भगवान महावीर चरित्र | Shraman Bhagawan Mahavir Chritr

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Shraman Bhagawan Mahavir Chritr by अभय कुमार - Abhay Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्ठष्न्ठ- च््नूस्ति आकाश लोहित था, धरती विप्लवमय ! मानव स्वभाव से हठीला, हिंसक, दम्भी और लोभी हो चुका था । अपनी हिसक और कामुक प्रवृत्ति से, जहाँ उसने इस पुण्य धरा को नरक वना डाला था, वहाँ वह, स्वयं करता, हिंसा, लोभ और काम की आग में झुलसकर छटपटाने लगा था । उस छटपटाहट और उद्विग्नता में प्रायः वह और भी भयानक प्रतीत होता था 1 परशु पक्षी तथा अनेक निरीह प्राणी, उरासे भपने प्राण बचति फिरते थे । --* *** और अन्तम वह स्वयं भी अपने ही पाप में गलसड़कर व्याकूल हो उठा था । उसे अपने भीतर और वाहर अन्धकार ही अन्धकार दिख।ई देता था । कभी-कभी तो श्रकाश की एक क्षीण सी किरण के लिए वह वहुत लालाथित हो उठ्ता था किन्तु प्रकाश उससे कोसों दूर था । निराशा में सिर धुनता था, कभी खीझ उठता था । दसी तरह वह्‌ पल पल, पीड़ा का अनुभव करने लगा । यदा तक किं अविचार और अचिवेक से जो पूजी का ढेर अपने पास संग्रित कर चुका था, वह भी अन्त मे उसे भयानक और छलनामय जान पड़ा । « वह अपने चारों ओर मृत्यु की छायां देखकर आतंकित हो उठा ! ड इस दुःसह वेदना से मुक्त होने का माग॑ ढूढते दू'ढते थक कर बैठ जाता था 1 सुष्टि की प्रत्येक जड़-चेतन वस्तु उसे मुह चिढ़ाने लगती थी । ऐसे ही पीड़ामय क्षणों में उसे देवताओं की दुंदुभियों के स्वर सुनाई देने लगे । उसकी आत्मा मे एकाएक स्फूर्ति-सी अनुभव होने लगी । वह उठकर धीरे धीरे लड़खड़ाता हुआ सुख की टोह में आगे बढ़ा ५ *: उसने देखा, भारत की पुण्यधरा के एक छोर पर प्रकाश हीं प्रकाश : विखरा था 1 एक पुण्यमयी माता ने उस जंसे अनेक पीड़ति ओर सुखके खोजियों के लिए एक प्रकाश-पुज को जन्मदे दिया था ! ः वह उल्लास परित होकर नाचने लगां ! >८ > ०५




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