ऋग्वेद - संहिता | Rigved Sanhita

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ˆ ६ भः), ८ अठ. अध्या०, २ अंनुण ] सडीक ऋग्वेद-संदिला ६ स्तुहि भ तं विपदिचतं हरी यस्य प्रसक्षिणा । गन्तारा दाशुषो णहं नमस्विनः ॥१०॥ तूत॒जोनो महेमतेऽेभिः परुषितप्युभिः । आयाहि यज्ञमाशुभिः शमिद्धि ते ॥११॥ इन्द्र॒ राविष्ट स्यते रयिं श्णत्यु धारय । श्रवः सूरिभ्यो अश्रुतं वसुखनम्‌ ॥१२॥ हषे ता सूर उदिते हषे मध्यन्दिने दिवः । जुषाण इन्द्र॒ सपिभिनं आ गह ॥१३॥ आतु गहि प्र तु द्रव मत्सरा सुतस्य गोमनः। तन्तु तनुष्व पूर्ध्यं यथा त्रिदे ॥१९॥ यच्छक्रासि परात्रति यदववति वृत्रहन्‌ । यद्रा समुद्रं अन्धसोऽवितेद सि ॥१५॥ ~. ---- -- ------- -~-~-------------- ` - -~-- -- -~-------~ १० स्तोता, तुम विद्वान ओर विरूधात इन्दरकी स्तुति करो । इन्द्रके शत्रज्ेता दोनों अश्व नमस्कार और हविवाले यजमानके घरमें जाते है । १४ तुम्हारी बुद्धि महाफल-दायिका है । तुम स्निग्ध हो । शीघ्रगामी त्रश्वरे साथ यज्ञम भागनन करो; फ्योंफि उस थक्षमें ही तुम्हें खुख है । १२ श्रेष्ट, बली अर साधु-गक्नक इन्द, हम स्तुति करते है; हमें घन दो । स्तोताओंको अधि- नाशो भौर व्यापक अन्न घा यश दो। १३ इन्द्र, सूयदिय होनेपर मैं तुम्हें बुलाता हाँ; दिनके मध्य भागमें तुम्हें बुलाता हू । प्रसन्न होकर गतिशील अश्वोंके साथ आओ | १४ इन्द्र, शीघ्र जाओ और सोम जहाँ है, बहाँ शीघ्र जाओ । दुग्ध-मिश्रित अशिधुत सोमसे प्रीत होओ । भनन्तर मैं जैसा जानता हैँ, बैसे दी पू्व-त्र विस्तृत यज्ञको निष्पनन करो । १५ हे शकः भीर चत्रघ्न, यदि तुम दूर देशप्रें हो, यदि समीपमें हो, यदि अन्तरीक्षें हो, ततापि उन सब स्थार्नोँसे आकर अर सोभपान करके रक्षक शोभो । य्‌




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