जरा सोचिए | Zara Shochiye

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Zara Shochiye  by पं. पद्मचन्द्र शास्त्री - Pt. Padam Chandra Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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संभी पर विच्वार करने लगे तो प्रथम तो परमगुरु जैसे उच्चं प्रद मे स्थित कई मुनियो की स्थिति ही (जैसी २१ प्रश्नो मे है) चिन्तनीय दिखेगी । हम पूरे समुदाय या व्यक्ति विशेष की समीक्षा के अधिकारी भी नहीं। फिर, कुछ मुनि-त्यागीगण निर्दोष भी तो है। यह मली भाँति समझ लिया जाय कि आज अर्थ-युग है, और जैन होता है अर्थ से अछूता-अपरिग्रही या .आचारवान सत्तोषी-श्रावक। उक्त दोनो प्रकार की श्रेणियो मे कितने जैन है, इसे सोचिए । धर्म की मिरावट मे मुख्य कारण तो परिग्रह और परिग्रही है और वे ही गिरावट के कारण पैदा करते है। पर, आज़ जो जितना अधिक परिग्रही है, अर्थ सम्पन्न है उसी को उतना बड़ा मानने का प्रचलन-सा चल पड़ा है। आज प्राय प्रभूत परिग्रही जैन ही नेता बनाए जाते हैं। कुछ लोग नाम के लिए--अधिकार पाने-प्रभुत्व जमाने के लिए भी नेता बनते हो तब भी आश्चर्य नही । प्राचीन काल मे धर्म के नेता होते थे-स्यागी और विद्वान्‌। वे अपने आचार-विचार ओर ज्ञान के कारण समाज मे सन्मानित होते थे ओर समाज के नेता होते थे-उदारमना, परोपकारी सेठ-साहूकार। दुर्भाग्य से आज इस अर्थयुग मे धर्म ओर समाज दोनो का ही नेतृत्व अर्थ के हाथो पड गया है। एसा होने मे सबसे बड़ा कारण है-बहूत से त्यागी ओर विद्रानो का अर्थ की ओर खिच जाना-त्याग से कट जाना। यहाँ तक कि आज विद्वानो की अपेक्षा कुष त्यागी कही अधिक मात्रा मे सग्रह कर-करा रहे है-लोग उन्हे देते भी हे । जब एकं व्यापारी को अपने व्यापार मे थोडी-बहुत पूजी लगानी पडती है तब त्यागी का व्यापार बिना किसी पूजी के बातो पर ही चलता है। जिस किसी को अर्थ संचय करना हो बातो की कला सीखे ओर बाह्य-त्यागी वेष मे आ जाय-पैसो की कमी नौ रहेगी । उसे पैसे भी मिलेगे ओर पूजा-प्रतिष्ठ भी। होँ, वह कुछ सहयोगी अवश्य बना ले। बस, यही कारण है कि विद्वानो ओर त्यागियों मे धर्म के प्रति शिथिलता आ गई ओर समाज की बागडोर के साथ धर्म की बागडोर भी पैसे और पैसे वालो के' हाथो मे चली गई। धर्म की दुर्दशा का मूल कारण यही है।




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