द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र | Dvivediyug Ke Sahityakaro Ke Kuch Patra

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Dvivediyug Ke Sahityakaro Ke Kuch Patra by बैजनाथ सिंह 'विनोद' - Baijanath Singh 'Vinod'

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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~ ण - नं रुगेगा, क्योकि इस तरह की प्रणाली औरों की भी तो है। आप समझदार हें, जो कुछ भी आप उचित समझेंगे वही करेंगे । प्रयाग में कुछ काम है । १०-५ दिन में वहां जाने का इरादा हूं । यदि जाना हुआ तो आपसे भी मिल लेगे।” (द्विवेदी पत्रावली पृष्ठ ६१) । इससे उस समय की सरकारी नीति तथा उस नीति से सामंजस्य बनाए रखने की द्विवेदी जी कौ प्रवृत्ति का पता लगता ह । स्व० श्रीघर पाठक जी के जिन पत्रों को में यहां प्रकाशित कर रहा हूं, उनमें भी अधिकांश में उस काल की लेखन प्रणाली और व्याकरण संबंधी विवाद ह| श्रीघर पाठक जी ने एक स्थान पर स्पष्ट लिखा हे कि--''कर्ता को प्रायः सर्वत्रैव प्रकट रखना अर्थात्‌ जहां उसे पुरानी प्रथा के अनुसार गृप्त रखना चाहिए, वहां भी उसका छाना, इससे अरोचकता उत्पन्न होती हं ओौर मृहाविरे का मजा मारा जाता है ।” इसके बाद अनेक उदाहरण देकर द्विवेदी जी के विचारों का खंडन करते हुए अन्त में उन्होने लिखा हु -- मे कोई नवीन प्रणाटी निकालना नहीं चाहता,. परन्तु दिष्ट क्षुस्य प्रथाका परम पक्षपाती हुं--मुझे राजा रिवप्रसाद, प° राधाचरण गोस्वामी, लाला बालमुकुन्द गुप्त की लेख झेली बहुत रचती है--मुझे असीम प्रसन्नता हो यदि आप इन सुलेखकों का अनुसरण कर सकें ।” (२२-८-०५ को प्रयाग से लिखा पत्र) । श्री बालमुकुन्द गृप्त जी के पत्रों मे सुदूर अतीत की. अनेक जानने योग्य बातें हं । उस काल की साहित्यिक चोरी, साहित्यिक विवाद ओर एक दूसरे के प्रति प्रेम ओर आदर के अनेक उदाहरण गुप्त जी के पत्रों में भरे पड़े हू । ये पत्र ऐसे हे कि जिनका महत्व आज भी कम नहीं हुआ हूं । हिंदी भाषा और साहित्य के विकास को स्पष्ट' करने के लिए इन पत्रों को प्रमाण रूप में रखा जा सकता ६ । और इसी' दृष्टि से इन पंक्तियों के लेखको ने स्व ° महावीर पसाद द्विवेदी, पद्मसिह दर्मा, श्रीधर पाठक, बालकृष्ण भटु गौर बालमुकुन्द गुप्त के महत्वपूर्ण पत्रों का यह संग्रह प्रस्तुत किया हू । इन पत्रों से उस काल की ऐतिहासिक स्थिति पर पूर्ण प्रकाश पड़ता है । प्लाट नं० १५, सिद्धगिरि बाग बंजनाय सिंह विनोदः १५, अगस्त १९५७




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