दुखी दुनिया | Dukhi Duniya

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Dukhi Duniya by चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य - Chakravarti Rajgopalacharya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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'काटेका ताना कादेका बाना ६ सुत्रद्मएयम्‌ कारीगरीके दांव-पेचोंसे हमेशा ही भरा रहता था । उससे पाथसारथीके कथनका शभिपाय अपने ढंगसे निकाला । वह बोला-- “बिलकुल ठीक है । किंतना ही प्रयन्न किया जाय, कपड़ा कभी एक-सा नहीं हो सकता | कहदीं ज्ञरा-सा पतला सूत ्रागया तो माल्‌ होता है कि कपड़ा भिर-फिरा है । इसका कुछ इलाज है ही नहीं । हमेशा जुलाहों ही की गलती नहीं होती | “हों, हम लोगोंको इन बंचईवालोंसे कह देना चाहिए कि उनको करौं ग्रौर चस्लोसे मिलकर-से कपडकी श्राशा नदीं रखनी चाहिए कराये श्राखिर करे हूं आर चरस ग्राखिर चरखे ।” ` “हुं” सुब्रह्माएमू बोला, “आर उनको यह भी समभ, तेना चाहिए. कि गांधीजीने कालीयूरमें कोई मिलें नहीं खड़ी की हं, जसि वे विना पूंजी लगाये मजेसे कपड़ा मंगा सके | “ठीक है | गांधीजीने एक घरेलू उद्योग खड़ा किया है और उससे सेंकढ़ों-दजारों ख््री-पुरुषोंको पेटकी ज्वालामें भस्म होने- से बचाया है । फैशन श्रौर शौकको चाहिए कि पतले और बढ़िया मिं सौंदर्य ने देखकर गरीबोंक्री रोटी देनेगें सोंदय दूखे |” इस प्रकार हाथके' कते-बुने कपड़ेके सानस-शाख्रपर बात हो रही थीं कि इतनेमें एक जुदिया श्र और पार्थसारथीके परॉपर पंसें फंक सिस- कियां लेती एकदम फूट-फूद कर रोने लगी | “क्यों, क्या है १” पार्थसारथी से मुस्कराकर पूछा । वह जानता था कि यह कातनिवाली प्रायः जरा-जरासी बातपर रो उठती है | “पने पैसे चापिस ले लीजिए । मैंने अपनी एक़माब श्रौलाद्‌ः ग्रपन। विघवा पुत्री--श्रपसे सबस्व--को चितापर रख दिया | श्व में श्रमासी बूटी जीकर क्या करूंगी ?” बुट्टिया रोने लगी | लेकिन वात क्या है ¢ पाथसारथीने पूछा । “पक्के मरने दीजिए | श्रपने पसे वापिस ले लीजिए; मुके आपके पैसे नीं चादिएं |”?




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