कुब्जा सुन्दरी और दूसरी कहानियाँ | Kubja Sundari Aur Dusari Kahaniyan

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Kubja Sundari Aur Dusari Kahaniyan by चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य - Chakravarti Rajgopalacharya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कुब्जा सुन्दरी ५ क्षोभ के समुद्र में मानो वह्‌ इव-स गये । उनकी प्रतिज्ञा झूठी पड़े गई थी, उनका ज्ञान निरथेक सिद्ध हो गया था । उन्हें बहुत ही दुःख हुआ और उनकी समझ में नहीं आया कि वह इस अपमान को कंसे सहन करें । उन्होंने यों ही. एक किताब उठा ली और उसे पढ़ने की चेप्टा की, लेकिन मन नहीं लगा । बहुत प्रयत्न करने पर भी वह उस अपमान की बात को चित्त से नहीं हटा सके । “हे भगवान्‌, कया मे सचमच पापी होता जा रहा हूं ? सीताराम !” इस तरह गिड़गिड़ाकर उन्होंने अपने मान्य देवता का स्मरण क्रिया ओर दया की यानना की। उस रात उन्हें नीद नहीं आई । उन्हें अपनी मृत पत्नी ओर बहिन की याद आई और उन्होंने मद्रास छोड़कर अपने गांव चले जाने का निश्चय किया । लेकिन एकाएंक उन्हे याद आया कि अगठे इतवार को चिन्ताड़िपेट में कपड़े के बड़े व्यापारी रामनाथ चेद्ियार के मकान पर गीता का उपदेश देना । ट्सवदेकौ म कंसे तोड़ सक्ताह ? लेकिन में भाषण दूंगा कंसे ?” इन्ही उलझनों में पड़े-पड़े वह सारी रात जागते रहे । ¢ दिरोमणि की छत पर छाते या. चादर का कोई संकेत न देखकर लड़कियों को बड़ी निराशा हुई। अगले दिन भी कुछ संकेत न मिला । लड़कियों को यह सोचकर बड़ा दुःख हुआ कि उनकी चाल चली नहीं । “कामाक्षी, अभी हमें एक दिन और इन्तज़ार करनी चाहिए,” कमला ने कहा । “वह हमारे धोखे में नही आ सक्ता, बड़ा चलता हुआ आदमी है, कामाक्षी ने जवाब दिया। “कितने की शातं लगाती हो? ्दो स्पयं की।' उच्छा, दी दिन का वक्त दो ।''




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