जय वासुदेव | Jay Vasudev

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Jay Vasudev by रामरतन भटनागर - Ramratan Bhatnagar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कुछ विस्मय, कुछ वित्तुन्ध हो इन्दु ने पथिक की शरोर देखा । वह्‌ वंशी पर मैरबी बजा रहा था । उसने सोचा, युवक उच्छहधुल हैः श्राश्रम की दिनचर्यां का उसे पता नी, कदाचित्‌ वह श्राश्रम के नियमों को नहीं जानता, कम से कम इस तरह पूछे बिना उसे बंशी नहीं बजानी चाहिए थीं | परन्तु बह तो मैंरवी के सुर निकाले जा रहा. था | अनन्त झाकाश में बंशी की कोमल-कांत स्वर लहरी मर गई शऔर इन्दु केवल विस्मित, मुग्ध श्रौर उत्कंडित हो उसे देखती रह गई | कव युवक से वंशी वजानां बंद किया, कब श्रनन्त आकाश में भूलती स्वर-लहरी धीरे-धीरे बंद हो राई, कब वातावरण फिर पहले की तरह शातं हौ गया, यह युवती ने नहीं जाना} परन्तु जव धह सरे गया, तो उसके पैर अनायास ही युवक की श्र बढ़ गये । “्रतिथि, तुम बंशी बड़ी सुन्दर बजाते हो” । षहँ, देविः । ध्ह कला वमने कँ सीखी ?” युवक ने उसे चकित करते हए कहा--कयो, क्या ब्राचा्यं तुम्हें बीणा नदीं सिखाते £ 'हाँ, सिखाते तो हैं, परन्तु यह बंसी की उक्ष कला उन्होने भुक्ते भी नहीं सिखाई ।' ` युवक हैँसा । उससे कहा--श्राचार्य तुम्हें कया कह कर पुकारते हैं, + + +- क्या इन्दु ? मँप कर इन्दु ने पूछा--तुमने मेरा नाम कैसे जाना ! युवक ने निस्पुह् भाव से कहा--ब्रह्मचारी ने तुम्हें इस नाम से पुकारा था जब मैं बंसी बजा रहा था । , रनास्वर होगा, परन्त॒ समय-्रसमय देखे बिना इस तरह नाम ६




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