श्रीउड़िया बाबाजी के संस्मरण भाग - 2 | Shri Udiya Baba Ji Ke Sansmaran Bhag - 2

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Book Image : श्रीउड़िया बाबाजी के संस्मरण भाग - 2  - Shri Udiya Baba Ji Ke Sansmaran Bhag - 2

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्र स्वामी भीञ्मखस्डानन्दजी महाराज कहना न होगा कि हमारे महाराजश्री एसे द्यी जीवन्मुक्त महापुरुषं थे । प्रत्यक्ष दर्शन के पूर्वं मी सत्सङ्धिखे हारा उनकी सिमा सुनकर तथा कल्याणः मेँ उनके उपदेश पद्‌ कर मेरे हृदयम उनके प्रति एक महान्‌ आकर्षण था । परन्तु उनके दुर्शनका सौभाग्य तो तव्‌ श्राप्त हुआ जब वे स्वयं कृपा करके प्रयागराज पघारे । उन दिनों में कथाके अतिरिक्त और बुद्ध नददीं बोलता था । कथामें ही उस चलते-फिरते ब्रहक्रा दशन करने के अनन्तर सायंकालीन सत्सङ्ग में मैने उनसे प्रश्न किया--“पुनर्जन्म किस वसतुका होता दै ? मैंने अपने मन्मे यह सोचाथाकि वे वेदान्तियों और चेदान्तप्रन्थोँ में प्रसिद्ध यद उत्तर देगे फि सत्रह तत्वोवाले लिङ्ग शरीरका दी पुनर्जन्म होता दै । साथ ही कहेंगे कि मनुष्य इस जन्म मे जो सुख-दुःखरूप फल भोग रहा है इससे पूर्वजन्म मेँ कयि इए कर्मोकी सिद्धि होती दै तथा इस जन्मभे किये जानेवाले केकि फल अभी देखने में नहीं आते, इसलिये आगामी जन्मकी सिद्धि दोती दै । ऐसा न सानने पर श्रकृताभ्यागम' और कृतविश्रणाश* दो दोषों की प्राप्ति दोगी तथा इंश्वर में पक्षपात और निद्यता के दोषोंका श्रसज् उपस्थित होगा । अतः पुनर्जन्म अवश्य स्वीकार करना चाहिये । इसके पश्चात्‌ पूछने के लिये मन ही मन यह सोच रखा था कि लिङ्ग शरीर का ही जन्म होता दै तो हुआ करे, में तो द्रष्य ह, उससे मेरा क्या सम्बन्ध ? मँ (आत्मा ) तो द्रष्टा हूँ, इसलिये मेरे लिये तो पुनर्जन्म के निवारण का प्रयत्न करने की भी कोई आवश्यकता नदीं दै । परन्तु यह सव तो मेरा मनोराञ्य था । उनका उत्तर था छश्ुतपूरवं ! उन्दनि कया, “विचार पुनजेन्म के निपेध के लिये १, बिना किमे कके फलकी प्राति । २. किये हुए कसेके फलका नाश ।




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