दशश्लोकी | Dashashloki
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
918 KB
कुल पष्ठ :
48
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[ दशश्छोकी ] [ ११ }
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यदं तक यदह सिद्ध क्षिया जा चुका किं समिन्य रीति से
जो त्वं शब्द का ध्र्थं समभा जता दे वदी उसका ठीक श्रथ
नहीं है नेदं यदिदसुपाखते' । अव तत्पद का जो श्रथं सामान्य
तयां समझा जाता है जिसको ईश्वरतत्व कद्दा जाता है उसी के
यथा स्वरूप का कथन किया जा थगा । उसके विषय में-झचेतन-
प्रधान ही जगत् का भूख कारण है देखा सांख्य मानते हैं ।
पशुपति ही इस जगत का कारण है वह् चेतन होने पर भी जीचों
से भिन्न है, उसी क्री उपासना करनी चाहिये न ऐसा पाशुपत
किंचा शेंव लोगों का विचार है । भगवान, चाखुदेव ही ईश्वर
ततथा जगत् क कारण है, उन्हीं से संकधंण नामक जीव की
उत्पत्ति होती है, उस जीव से प्रद्युम्न नामक मन उत्पन्न हो
ता हैः उखसे श्रनिरुद्ध नामक श्रहंकार का जन्म होता है,
इख भएर उरपन्न होने वाला होने के कारण थह जीव वाखसुदेव
नामक परह्य से प्रत्यन्त मिन्न पदां है रेखा पंचरात्र मतासु-
यायी समते ह! परमात्मा परिणामिनित्य सचक्ष तथा
थिन्नासिन्न पदार्थ है पसा जिद्राडी श्र जैनो का सिद्धान्त है ।
सर्वश्चता अदि शुरो से युक्त बह्म नाम की कोद वस्तु है ही
नहीं; सम्पूर्ण वेद ही क्रिया परक है, इस कारण ब्रह्म में उसका
तात्पर्य ही नहीं है, किन्तु 'वाणी को गाय सम कर उसासनां
करे 'इत्यादि चाक्यों के समान जगत् फे कारण परमाणु
श्रथचा जीयो को ही सर्वक्ष समझ कर उनकी उपासना करनी
चाहिये, पेसा मीमांसक लोग कहते हैं । पूथिची झादि कार्यों
“को देख कर जिसका झनुमान किया जाना है ऐसा पक नित्य
शानादि वाला सच पदार्थ ही ईश्वर है वह तो जीवो से भिन्न
ही है थह तार्किकों का सिद्धान्त वताया जाता है । शिक चस्तु
ही सर्च परमात्मा हैं ऐसा बौद्ध ने मान लिया है ! कलेश कमं
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