समयसार प्रवचन भाग - 2 | Samayasar Pravachan Bhag - 2

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जोघाजीचाधिकार । गाथा १२ } {९ जिसने ऐसे नवत्त्लोंको नहीं जाना उनकी यहाँ वात नहीं है। वीतरागदेवके यासे या सतूममागमसे जिसने सच्चे नवतत्वोंको जान लिया है तथापि यदि वह तलक चिक्रस्मे दी छगा रहे तो उसका संसार बना रहेगा।. नवप्रकारमेंसे शुद्धवयक्के द्वारा एक- रूप ज्ञायक ह इसप्रकार एक परमार्थ स्वभावकों ही स्वीकार करना सो सम्यक्ख है। दान, पूजा इत्यादि झुमभाव हूं और हिंसा, असत्य आदि अदाम भाव द्धं। उन झुभाराभ मविक्रि करनेसे धर्म होता है यह मानना तो त्रिक्ञार मिथ्या हे) इससे पुण्यके झुभभाव छोड़कर पाप- में जानेको नहीं कदा इ) विपय-क्पाय-देहादिमे आसक्ति, स्पय- पना ओर रागी प्रद्ततिहप व्यदसाव इत्यादि समस्त भावोंमिं मात्र पापस्य अदामभाव हं, ओर दानादि तृष्णाकी कमी अथवा कषाय- द्म मददा इव्याद्रि दो ते दह दामभाव-पुण्य है, इसप्रकार पुण्य- पापको व्यदटाम्से रिन्र मानै किन्तु दोनोको आल्लव मानकर उससे घर ने माने; इसप्रकार नवतलोंको भठीमाँति जाने तो बह मभाव हे | धर्मकी ऐसी वात यदि धीरजसे एकाग्रतापूवेक न सुने तो मूल चस्तु यकायक समझमें नहीं आती; पइचात मीतर ऐसा होता है कि- यदि एसा मानेंगे कि ऐसे पृण्यके व्यवहारसे पुण्य नहीं होता, तो धर्म और एण्य दोनोंसि श्रष्ट हो जायेंगे। किन्तु सत्यकों समझे चिना न्रिकालमें भी संसारका अभाव नहीं होसकता । जनादिकाल्से यथाथ यस्तुकी प्रतीतिके बिना जितना किया और जितना माना हे वह्‌ सव अक्लान ही है, उस सबको छोड़ना पड़ेगा। जिस भावसे अनन्तकालसे सार्य सेवन किया हूं वह भाव नया नहीं है। धर्मके नाम पर जंतरंग स्वरूपकों भूलकर अन्य सब अनन्तयार किया हैं किन्ठ उससे धमन नहीं हुआ; मात्र छुभननशुगभाव हुए हं किन्तु उन दंघनभावों से अंशमात्र धर्म नहीं होता । पूर्वापर विरोधसे रहित सच्चे नदनलोंको ने तब जगूता्थमें ( व्यदटारमें ? आता है, वह मी. पृण्यमाव द; समर पर्ण परमपद प्रगर नहीं होता । {11 न




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