जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व दूसरा भाग | Jain Darshan Ke Maulik Tattv Bhag 2
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
559
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about जयचन्दलाल दफ्तरी - Jaichandlal Daftari
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)८] जेन दर्शन के मौलिक तत्त्व
जाता रहा । शऋषि अपनी स्वतन्त्र वाणी में वोलते हैं--“मैं यो कहता हूँ 5१”
दार्शनिक युग में यह बदल गया | दार्शनिक वोलता है--“इसलिए यह याँ है|”
झआागम-युग श्रद्धा-प्रधान था और दर्शन-युग परीक्षा-प्रधान | आगम-युग में
परीक्षा की श्रौर दर्शन युग में श्रद्धा की अन्त उपेक्षा नहीं हुई। हो भी नहीं
सकती । इसी वात की सूचना के लिए ही यहाँ श्रद्धा और परीक्षा के आगे
प्रधान शब्द का प्रयोग किया गया है | आआगस में प्रमाण के लिए. पर्यास
स्थान सुरक्षित है । जहाँ हमे श्राजायति*” एवं सक्तेपमत्ि* का दर्शन
होता है, वहाँ विस्तारसति भी उपलब्ध होती है४ | इन रुचियों के शध्ययन
से हम इस निप्क्प पर पहुच सकते हैं कि दर्शन-युग वा श्रागम युग असुक-
श्रमुक समय नहीं किन्तु व्यक्तियों की योग्यता है। दार्शनिक युग श्रथात्
विस्तार-रुचि की योग्यतावाला व्यक्ति झागम युग अर्थात् आशारुचि या
सनेपरचिवाला व्यक्ति । प्रकारान्तर से देखें तो दार्शनिक युग यानी विस्तार
रुचि, श्रागमिक यानी आजञारचि | दर्शन के हेतु वतलाते हुए वैदिक ग्रन्थकार
ने लिखा है-श्रौत वाक्य सुनना, युक्तिद्वारा उनका मनन करना, मनन
क वाद् सतत-चिन्तन करना-ये खव दर्शन के हेठु हैं?” |” विस्तारदच्चि,
की व्याख्या में जैनयूत्र कहते हैं--“द्रव्यों के सब भाव यानी विविध पहलू
प्रत्यक्ष, परोक्ष श्रादि प्रमाण एवं नैगम आदि नय--समीक्षक इृष्टियों से थो
जानता है, चह विस्ताररुचि ६३६ |” इसलिए यह व्याति वन सक्ती है कि
आगम में दर्शन है और दर्शन में श्रागम | तात्पर्य की दृष्टि से देखें तो
अत्पडुद्धि व्यक्ति के लिए श्राज भी आगम-युग है और विशद्-घुदि व्यक्ति
के लिए पहले भी दर्शन-युग था। किन्तु एकान्ततः यो मान लेना भी सगत
नहीं होता | चाहे कितना ही अल्प-चुद्धि व्यक्ति हो, कुछ न कुछ तो उसमे
परीक्षा का भाव होगा ही ) दूसरी ओर विशद्बुद्धि के लिए भी श्रद्धा
आवश्यक होगी ही । इसीलिए; झ्राचायों ने वताया है कि झ्ागम और
प्रमाण, दूसरे शब्दों में श्रद्धा और युक्ति-इन दोनों के समन्वय से ही दृष्टि मे
शृता श्राती है अन्यथा सत्यदर्शन की इष्टि अधूरी ही रहेगी |
विश्व में दो प्रकार के पदार्थ हैं-“'इन्द्रिय विषय श्र श्रतीन्द्रिय-विषय |
ऐन्डियिक पदार्थों को जानने के लिए युक्ति और उतीन्द्रिय पदार्थों फक्ो
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