दिनकर के काव्य | Dinakar Ke Kavy

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Dinakar Ke Kavy by लालधर त्रिपाठी - Laldhar Tripathi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पूवे भूमि ६ कवि-भ्री पन्त की कवि-प्रतिभा का परिचालन पुस्तकों द्वारा दी विशेष रूप से होता रहा या दोता है, इसीलिए, श्रात्म-चिन्तन या स्वानुभूति की मात्रा उनकी कविताश्यों में श्रत्यल्प मिलती रही है । एक उदाहरण, मोटे रूप में प्रस्तुत कर रहा हू । रवीन्द्रनाथ ठाङ्कुर की गीताञ्ललि की दूसरी कविता है- नामि बहू बासनाय प्रानपने चाह, बद्चित क' रे बाँचाले मोरे । ए कूपा कठोर सब्चित मोर जीवन भरे । ना चाहिते मोरे जा करेछो दान आकाश आलोक तु मन प्रान, दिने दिने तुमी नितेदो अआमाय से महादानेरइ जोग्य करे, अति इच्छार सङ्कट हते बोँचाये मोरे । न न + पूरे करिया लबे ए जीवन तव मिलनेरइ लोम्य करे राधा इच्छार सङ्कट इते बोचाये भोरे 1” चन्तज्ी इसी छाया पर श्रपनी लेखनी चलाते हए शशुंजनः की नवीं कविता मेँ कहते हैं, श्रधरों पर मधुर अधर धर, कहता मदु स्वर मे जीवन- बस एक मधुर इच्छा पर अर्पित त्रिमुबन-यो बन-धन ! पुलकं से लद जाता तन, द जति मद्‌ से लोचन; तत्क्षण सचेत करता मन- ना सुमे इष्टं है साधन । इच्छा है जग का जीवन, पर साधन आत्मा का धन, जीवन की इच्छा है छल इच्छा का जीवन जीवन । नः + +




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