रहस्यवाद | Rahasyavada

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रहस्यवाद : तास्विक्र विवेचन $ श्रात्मदशंन ही प्रकाश रै, परन्तु इतके लिए प्रवचन श्रौर्‌ श्रभ्ययन- च्मभ्यायन की. श्रावश्यकता नहीं है-नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेध्या न बहूना श्रुतेन (क०.१-२-२२) सत्य, तप, सम्यक्‌ ज्ञान, बद्मचयं से ही इस श्रात्मद्शन की उपलब्धि होती है। तब साधक श्रपने शरीर के भीतर ही शुभ ज्योति के देंशन करता है--सत्येन लम्यस्तपसा ह्येष श्रात्मा सम्यग््ानेन अझचयंण नित्यम्‌ । श्रन्तः शरीरे ज्योति मयाहि शुभ्रो यं पश्यति यतयः च्षीण- दोषः ८ मु'डक° ३-१-५) | इस आत्मद्शन की उपलब्धि का शान ही वेदांत है । यदद गुद्य शान है। इसे न पिता पुत्र को दे सकता है; न गुरु शिष्य को । जिसपर उस (श्रात्मा ) की पुष्टि दोती है जिसे वह प्रकाशित होना चाहती है, उसी का यह श्रात्मद्शन होता हे-- वेदान्ते परमं गृह्य पुराकाले प्रचोदितम्‌ । ना प्रशान्ताय दातब्यं ना पुत्रायां शिष्याय वा पुनः। यस्यदेवे पराभक्ति यथा देवे तथा गुरो। तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ¦ प्रकाशन्ते महात्मनः (श्वे° ६-२२-२३) । वास्तव मं स्वयं साधक कों अपनी साधना के विषय में जागरूक होना पड़ता है । ऋषि कहते हैं--इस रदस्यमाग पर चलना छुरे की घार पर चलने के समान है उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्यवरान्निबोधत । श्ुरस्य घारा ! निशिता दुरत्यया दुगं पथस्तत्कवयो वदन्ति ( कठ० श-३-१४ ) । उपनिषद के श्ात्मशान में हम अद्+श्रायकाल से चली श्राती योगधारा का, प्रभाव भी पाते दैं। श्वेताश्वैतर में योग के सिद्धांतों का विशद विवेचन है । यहाँ योग मुख्यतः प्राणुसंवरोधक है । कठ श्रौर मुडक में भी प्राण को ऊध्वं करके विश्वदेव ( नक्ष) का ध्यान करने को कहां गया है। इन्द्रियों, इृदय, मन श्रथवा कल्पना से उसे नहीं पाया जा सकता-न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य न चश्चुषा पश्यति क्श्वनैनं हृदा मनीषा मनसामिकलूसों य एतद्विदुरमतास्ते भवन्ति ( कठ० २-६-६ ) । योगियो की माति




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