रहस्यवाद | Rahasyavada
श्रेणी : पत्रकारिता / Journalism
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13 MB
कुल पष्ठ :
257
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)रहस्यवाद : तास्विक्र विवेचन $
श्रात्मदशंन ही प्रकाश रै, परन्तु इतके लिए प्रवचन श्रौर् श्रभ्ययन-
च्मभ्यायन की. श्रावश्यकता नहीं है-नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो
न मेध्या न बहूना श्रुतेन (क०.१-२-२२) सत्य, तप, सम्यक्
ज्ञान, बद्मचयं से ही इस श्रात्मद्शन की उपलब्धि होती है।
तब साधक श्रपने शरीर के भीतर ही शुभ ज्योति के देंशन करता
है--सत्येन लम्यस्तपसा ह्येष श्रात्मा सम्यग््ानेन अझचयंण
नित्यम् । श्रन्तः शरीरे ज्योति मयाहि शुभ्रो यं पश्यति यतयः च्षीण-
दोषः ८ मु'डक° ३-१-५) | इस आत्मद्शन की उपलब्धि का शान
ही वेदांत है । यदद गुद्य शान है। इसे न पिता पुत्र को दे सकता है;
न गुरु शिष्य को । जिसपर उस (श्रात्मा ) की पुष्टि दोती है जिसे
वह प्रकाशित होना चाहती है, उसी का यह श्रात्मद्शन होता हे--
वेदान्ते परमं गृह्य पुराकाले प्रचोदितम् । ना प्रशान्ताय दातब्यं ना
पुत्रायां शिष्याय वा पुनः। यस्यदेवे पराभक्ति यथा देवे तथा गुरो।
तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ¦ प्रकाशन्ते महात्मनः
(श्वे° ६-२२-२३) । वास्तव मं स्वयं साधक कों अपनी साधना के
विषय में जागरूक होना पड़ता है । ऋषि कहते हैं--इस रदस्यमाग पर
चलना छुरे की घार पर चलने के समान है उत्तिष्ठत जाग्रत
प्राप्यवरान्निबोधत । श्ुरस्य घारा ! निशिता दुरत्यया दुगं पथस्तत्कवयो
वदन्ति ( कठ० श-३-१४ ) ।
उपनिषद के श्ात्मशान में हम अद्+श्रायकाल से चली
श्राती योगधारा का, प्रभाव भी पाते दैं। श्वेताश्वैतर में योग के
सिद्धांतों का विशद विवेचन है । यहाँ योग मुख्यतः प्राणुसंवरोधक है ।
कठ श्रौर मुडक में भी प्राण को ऊध्वं करके विश्वदेव ( नक्ष)
का ध्यान करने को कहां गया है। इन्द्रियों, इृदय, मन श्रथवा
कल्पना से उसे नहीं पाया जा सकता-न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य
न चश्चुषा पश्यति क्श्वनैनं हृदा मनीषा मनसामिकलूसों य
एतद्विदुरमतास्ते भवन्ति ( कठ० २-६-६ ) । योगियो की माति
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