रामायण कालीन समाज | Ramayan - Kaleen Samaj

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Ramayan - Kaleen Samaj by डॉ. शांतिकुमार नानूराम व्यास - Dr. Shantikumar Nanuram Vyas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वाल्मीकि भीर उनका कान्य ७ कठिन था, फिर भी वाल्मीकि उन इने-गिने लौकिक ऋषियो में से थे, जिनका दृष्टिकोण पूर्णत मानवीय था । राम उनके लिए एक मानवीय महापुरुप थे, एक ऐसे 'पर-चद्रमा' थे, जिन्होनें विकट परिस्थितियो के वीच रहकर भी अपने शीक की रक्षा की तथा अपने युग की हौनताओ ओर मानव-मात्र की दुर्बलताओ से ऊपर उठ कर मनुष्य को ईङ्वरत्व की कोटि तक पहुचा दिया । इस स्वस्थ दृष्टिकोण ने उनकी रामायण को एक सहज आकर्षण से परिप्लावित कर दिया है। रामायण मेँ समय-समय पर प्रक्षेपो के रूप मे अतिरिक्त सामग्री जुडती रही है । ये परिवर्धन कुछ तो प्रतिभाशाली कवियों ने और कुछ संस्कृत के विद्वान ने विये । ये अश्ञ उन लोगो द्वारा उचित और उपयोगी माने जाते थे, जो या तो अपने विचारो को दूसरो तक पहुचाना चाहते थे या यह्‌ समझते थे कि इस प्रकार मूल काव्य अधिक सुदर और कही-कही अधिक विस्तृत वन जायगा ! परिवर्धन की इस प्रक्रिया मे तीन कारणो ने सहायता पहुचाई--एक तो प्रारभे में यह्‌ काव्य मौनिक रूप से प्रचित रहा, दूसरे, वाद में इसकी कुछ ही हस्तलिखित प्रतियां उपरुन्ध रही, ओर तीसरे, इनकी प्रामाणिकता की पुष्टि के सहज साधन भी उप- रव्व नही थे । कितु प्रक्षेपकर्ता यह्‌ नही समञ्ते थे कि हम किसीके साथ धोखा कर रहे हैं, क्योकि वे मानते थे किं हेम सत्य ओर स्वस्थ विचारोकाही प्रचार कर रहे ह । पाडलिपि जितनी बडी होती थी, भक्त लोग उसका उतना ही अधिक आदर करते थे, क्योकि प्रचलित धारणा यह थी कि मूल ग्रथ वहत विशाल था ओर उसके अनेक अश लृप्त हो गए । इसलिए कुच छोगो ने इन विलुप्त अशो के पुनरुद्धार का वीडा उठाया ! रामायण कै ये परि्वधित या प्रक्षिप्त अन मूल्यवान भले ही हो, पर वाल्मीकि-रवित मूल भागो से निस्सदेह भिन्न हू । रामायण को लिपिवद्ध करते समय उसके विभिन्न पाठ, प्रक्षेप तथा लोकों के क्रम उसी रूप में लिख लिये गए, जिस रूप में भिन्न-भिन्न प्रदेगो के सूत और गायक उन्हे गाकर सुनाया करते थे । फलत भारत क विभिन्न भागो मे रामायण के पृथक- पृथक पाठ प्रचलित हो गए । इन पाठ-भेदो के आधार पर पिछले डेढ सौ वर्पों में रामायण के अनेंक सस्करण छपे । सबसे पहले सन १८०६ में सिरामपुर के डा० विलियम केरी और डा० जोशुआ मर्श्दमत्र नाम के दो पादरियो ने रामायण के प्रथम दो काइ अग्रेजी अनुवाद-सहित प्रकाशित किये । उनका आधार रामायण का पढ़िच- मोत्तरीय पाठ था । १८२९ में जर्मन विद्वान ब्लीगल ने प्रथम दो काड लैटिन अनु-




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