संस्कृत और उसका साहित्य | Sanskrit Aur Uskaa Saahitya

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Sanskrit Aur Uskaa Saahitya by डॉ. शांतिकुमार नानूराम व्यास - Dr. Shantikumar Nanuram Vyas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्द सस्कृत झोर उसका साहित्य तूने व्याकरण कृत्सट्वससेस बहुधा श्रुतम बहु व्याहरताउनेत से किलचिदफाब्दितलू ।। क्योंकि यहाँ माषा की शुडता का कारण वेदों और व्याकरण को ज्ञान माना गया है इसलिए यह कहा जा सकता हैं कि वेद-पाठी और व्याकरशु-ज्ञाता वर्ग श्न्य वर्गों की अपेक्षा अधिक शुद्ध एवं सुसंस्कृतः माषा का प्रयोग करता था | कालान्तर में संस्कृत के उक्त दोनो रूपा का पार्थक्य स्पष्टतर होता गया । झायोँ की ब्णु-व्यवस्था से जिस प्रकार समाज को उच्च श्र निम्न बर्गों मे विभाजित किया उसके परिणामस्वरूप उच्च जातियों की भाषा में श्र निम्न वर्ग की बोलियी में दूरी आती गई । जाक्षण-सम्यता धार्मिक बन्घनो में फँसकर झपने को जितना ऊपर उठाती गई श्और तपनी भाषा को पविन्न बनाने के विचार से उसे व्याकरण श्रौर शुद्ध उच्चारण में कसती गईं उतने ही निम्न वर्ग के लोग उससे दूर होते चले गए । यह खाई उस समय स्पष्ट हुई जब जैन श्रौर बौद्ध धर्मों मे जन्म लिया झऔर उनके प्रवर्तकों ने झपने धर्मों का प्रचार संस्कृत में न करके तत्कालीन लोकै-मापा पाल में किया जिसमें संस्कृत के साहित्यिक सथा बोल-चाल वाले रूपों का मिश्रण है । यह सत्य है कि इस नई चोट से बिशुद्ध संस्कृत का व्यवहार टूठा नहीं पर इतना श्वश्य हुआ कि इस समय से भारतीय उ्ार्य-भाषाझी के दूसरे युग का सूबपात डुआआा जिसमें संस्कृत के बतिरिक्ता प्राकृती--संस्कृत से निकली लोक-माषाश्यों--को बढ़ने शरीर फौलने का शवसर मिला । इसकी पुष्टि सस्कत के प्राचीन नाटकों से होतो है जिनमें ब्राह्मण राजा मन्त्री आदि उच्च- वर्गीय पात्र संस्कृत बोलते हैं जबकि निम्न वर्ग के लोग जिनमें स्त्रियॉँ भी सम्मिलित हैं प्राकृत बोलते दिखाये गए हैं । इस युग में पाछि _मागधी श्र्घ-मागधी शौरसेनी तथा अन्य प्राकृत भाषाएँ. भारत के १. बाल्मीोकोय रामायसा ४ं। ३4२८-९६




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