गजेन्द्र व्याख्यान माला दूसरा भाग | Gajendra Vyakhyan Mala Dusara Bhaag

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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८] [ गनेन व्माद्यान माला भरत मे श्रद्धितीय श्रात्म-वल था । उन्होने सोचा - “चक्र रत्न के चल परमे चक्रवर्ती नही वनने बाला ह । चक्रवर्ती वनने की योग्यता तो मेरी श्रात्मा मे है। यह चक्र-रत्न मेरे पृण्य-वलके पीछेश्राया है ।” प्रभु-भक्ति मे विश्वास रखने वाला श्रादमी भौतिक चीजो को सहज ही मे ठोकर मार देता है । प्रसगवश एक प्राचीन घटना याद श्रा गई । किसी भाग्यशाली नगर सेठ की बात है। उसकी श्री-सम्पन्‍्न दशा मे, चढते पुण्योदय के समय में उनके यहाँ एक योगी श्राता है । सेठ ने उनका सम्मान किया, ग्रात्मीयता के साथ उनको बडी श्रावभगत की । योगी बडा प्रसन्न हुश्रा । जाते समय वावा ने सेठ से कहा - “सेठजी मे बहुत खुशी है, लो मेरे पास यह पारस है, इसे तुम ले लो ।” सेठ ने पूछा - “पारस से क्या होता है ? ” वावा ने कहा, “इस चिमटे पर पारस को रगडने से सोना हो जाता है ! ”' यह सुनकर सेठ का मन मचलना चाहिये था या नहीं ? श्रापके सामने यदि ऐसा बावा आरा जाय तो ? दो मिनट सामायिक मे बाकी है भ्रौर यदि वावा कहे - “में जा रहा हूँ” तो ? नगर सेठ का इम्तिहान था । लेकिन वह झ्रात्म-विश्वासी था । उसने वावा के हाथ से चिमटा ले भ्रपने ललाट से छुवाया । चिमटा सोने का होगया । बाबा लज्जित हो चला गया | श्राप लोगो मे इतना श्रात्म-विश्वास नहीं है । पहले के जमाने के लोग क्यो धर्में मे आस्था रखते थे * उनके मन मे विश्वास था, वे धार्मिक काये करते थे । श्राप भी घारमिक कायें करते हो । दोनो मे क्या फर्क है ? झ्राप कहोगे -- “हुम कोई खोमचे वाले थोडे ही है, हम भी सेठ है, जौहरी है । विदेशों मे हमारा घन्धा है । आत्म-विश्वास से धन्धा होता है।” पर पुराने जमाने के लोग श्रात्म-विश्वास के कारण दिन भर हाय-हाय नहीं करते थे । श्रपना समय धर्में के लिये भी देते थे । ४ बजे तक श्रपना धन्धा करते श्रौर फिर श्रवकाश ले लेते । आ्राज जौहरियो की सख्या बहुत बढ गई है। व्यापार का क्षेत्र भी बढ़ा है, ऐसा कहूँ तो गलत नहीं होगा । पहले इतना विस्तार नहीं था, जितना झ्राज हो गया है । श्रौर लाभ भी भरपूर है । लेकिन भ्राज इस धन्धेमे भी लोगो को सन्तोष नही रहा । भगवान महावीर का शासन कहता है कि इसन को इतना परेशान होने की श्रावश्यकता नही है । तो आझ्राप अपने झाप को




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