श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण अरण्यकाण्ड | Shrimadwalmikiy Ramayan Arany Kand

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Shrimadwalmikiy Ramayan Arany Kand by चन्द्रशेखर शास्त्री - Chandrashekhar Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हद अरगयकारदम्‌ इतोऽहं पुरुष्या शक्रतुरयवलेन वै । मया तु पूरव खं मोहान्न ज्ञातः पुरुषपभ ॥ १४॥ कोसस्या सुमरजास्तात रामस्तं विदितो मया । वैदेही च मह।भागा लक्षणश्च महायशाः ॥१५॥ श्रभिशापाद्हे घोरां भविष्ठो राक्षसीं तनुम्‌ । तुम्बुरूनमिगन्धरवः शपो वेभवशेन हि ॥१६॥ भरसाद्यमानस्य मया सोऽव्रवीन्यां महायशाः । यदा दाशरथी रामस्त्वां वधिष्यति संयुगे ५१७ तदा भ्ररृतिमापन्नो मवान्स्वर्ग गमिष्यति ¦ अनुपस्थीयमानो मां स कुद्धो व्याजहार ह ।॥१८॥ इति वेश्रवणो राजा रम्भासक्तमुवाच ह । तव परमरादान्मृक्तोऽहममिशापास्छुदारुणात्‌।। १६॥ सुवनं स्वे गमिष्यामि स्वस्ति ब्रोऽम्तु परतप । इतो वसति धर्मासा शरभङ्कः प्रतापवान्‌ ॥२०॥ श्रध्यधयोजने ताः पपिः सूयसंनिमः । तंक्षिपममिगच्ः स्वं सते श्रयोऽभिधास्यति॥२१॥ श्रव चापि मां राम निनिप्य कुशली वरज । रन्तसां गतसक्छानामष धमः सनातनः ॥२२॥ श्रव ये निधीयन्ते तेषां लोकाः सनातनाः । एवमुक्त्वा तु काङकर्स्यं विराधः शरपीडितः॥२३॥ वभूव स्वरगगसंपरप्रो न्यस्तदेहो महावलः । तच्छुत्वा राघवो वाक्यं लक्ष्मणं व्यादिदेश ह ॥२४॥ कुञ्जरस्येव रौद्रस्य रान्नसस्यास्य लक्ष्मणः । बनेऽस्मिन्षुपदाज श्रः खन्यतां रो द्रकमणः॥२५॥ इस्युक्त्वा लक्ष्मणं रामः प्रदरः खन्यतामिति । तस्थौ विराधमाक्रम्य कण्ठे पादेन वीयेवान्‌॥२६॥ ततः खनित्रमादाय लक्ष्मणः श्वध्रसुत्तमम्‌ । त्रखनत्पाश्वतस्तस्य विराधस्य मदयत्मनः ॥२७॥ समान पराक्रमवाले, श्रापने मेरा वध किया. मूखनावश पले मैं श्रापके न जान सका ॥ ९४ ॥ तान, श्रापसे कैसस्या श्रेप्पुत्रकी माता हु है, मं जान गया श्राप रंमचन्द्रर, ये महाभागा जानकी श्रोर ये महायशस्वी लच्मण हैं ॥ १५ ॥ शापके कारण मैने यह राक्षसी शरीर पाथा है। मे ठस्वरु नामका गन्धवहं श्रौर कुवेरने सुभे शाप दिया हैं ॥ ९६ ॥ जव मंन उनके प्रसन्न किया तच यशखी कुवरने सुभासं कहा कि जव दशरथपुत्र रामचन्द्र रणम तुम्हारा वध करगे ॥ ९७ ॥ तव तुम श्रपने पहलके स्वरूपक्रा पाकर स्वगंमं श्राश्रोमे। समयपर उनकी सेवामें उपस्थित न हानेके कारण क्रोध करके उन्देनि सुमे वैसा कहाथा॥ ८ ॥ रम्भा नामकी शप्सरामं मं श्रासक्त था, इस्र कारण कुवेरने सुभे शाप दियाभथा। श्राजश्रापक्री छकृपासे में उस भयानक शापसे मुक्त दुञ्ा ॥ १६ ॥ श्रव मे अपने लोाकका जाता हूँ। परन्तप, झापका कल्याण हो । इघर प्रतापी घर्मात्सा शरभड ऋषि रहते हैं ॥ २० ॥ यहाँसे डेढ़ येलन पर उनका स्थान है, ये सूयंके समान तेजस्वी हैं, शीघ्रही श्राप उन महर्पषिके पास जाँय, वे झाप- का कल्याण करंगे ॥ २१ ॥ गढ़ेमें मेरे शरीरका तापकर आप कुशलपू्क यहाँसे जाएं, क्योंकि मरनेपर राक्षसे लिए यही सनातन धर्म है ॥ २२॥ जा रात्तस गमं गाड़ जति है, उन्हें भेष्ठ लेक प्राप्त होने ह । शरपीड़ति महाबली विराधने रामचन्द्रसे पेखा कहकर ॥ २३ ॥ राक्षस शरीर छोड़कर स्वर्ग प्राप्त किया । उसके चचन सुनकर रामचन्द्ने लद्मणकंा श्रान्षा दी ॥ २ ॥ भयानक हाथीके समान भयदायी राक्षसके लिए इस बनमें एक बड़ा. गढ़ा खादा ॥ २५ ॥ लघ्मणुका गदा खे(दनेकी श्राज्ञा देकर रामचन्द्र विराघका गला पेरसे दबा- कर खड़े रहे ॥ २६ ॥ लदमणने पक खनती लेकर मद्दात्मा विराघके बगलमें ही एक उत्तम गढ़ा




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