श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार | Shri Ratnakarand Shravakachar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मर्तावन ०००0 (४ अन्थ ओर ग्रन्थकार--- मारदीय धर्मोमें जैनघर्मका सबसे महत्व पूर्ण स्थान है, क्य- कि उसके दिस और अपरिश्रदवाद आदि सिद्धान्त, उनकी विचार सरसी और 'अर्दिसाके ब्यावदरिक सुव्दर रव सुगम- रूपका दज ल दज कथनः जसा जेनधमेमे प्म्या जाता है-वेसा च्मम्यन्न करीं भि उपलन्ध नद होतः? । जैनधमंकीि अर्हिसाके उदूगमका इविद्न्त बहव द्यी प्राचीन दे उसके प्रवर्तक भगवान ` आदिनाथ अथवा ऋषभदेव- दै जन्द आदि-नह्य मी कदा जाता है, जौर जिनके सुपुत्र भरत चक्रव्तीँके. नामसे इस देशका नाम “भारतवषं” भूतलसें मसिद्धिको प्राप्त छुआ है । भारतके सभी धर्मोपर जं नी अर्दिसाकी छापदहै, इसमें किसीको विवाद नददीं । उसनेद्ध लोकम समता समानता थका विश्वप्रेमकी अल्लुपस घाराको जन्म दिया दे उसका दायरा भी संकुचित नहीं है और ल वद्‌ केवल मानवॉतक ही सीमित है, किन्तु बह संसारके प्रत्येक प्राणीसें विश्व भ्ेमसकी भावनाकों उद्धावित करता दे और उनमें 'छामिनवसेत्रीका संच।रभी करता है. तथा अनेकान्तके व्यव- दार दार उनके पारस्परिक विसोर्घोका निरसन करता इश्ा उनके १




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