प्रेमदर्शन - मीमांसा भाग - 1 | Prem Darshan Meemansa Bhag - 1

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Prem Darshan Meemansa Bhag - 1  by इन्द्र ब्रह्मचारी - Indra Brahmchari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका सव है । उसमें कर्म की-सी शाष्कता नदीं दै। उसमे ज्ञान की सी गहनता भी नहीं है ¡ वह तो भक्तं हृदय को प्रेम से परिपणे, भक्ति से चिभोर च्रौर श्नानन्द्‌-रस से आसावित परमानन्द में निमग्न करते की अदु युत क्षमता रखता है । भगवताप्नि के लिये, निर्वाण चौर अपवग के लास के लिये मगवद्धक्ति के समान सरस, सरल रौर सुन्दर साधन दूसरा नदी दै । दाशेनिक सादित्य में इसी 'भक्तिदन' का दूसरा नाम श्रेमद्शंनः भा हे । यों देखा जाय तो प्रेम और द्शन शब्द का समन्वय कुछ अटपटा-सा जान पड़ता है; क्योंकि प्रेम हृदय की रागात्सक भावनाओं का,सार.हे, और दर्शन का आधार वेराग्य है । विशेषतः भारत के दाशेनिक क्षेत्र में प्रधान साम्राज्य वैराग्य का ही है'। पूर्ण वैराम्य के बिना दशेन के प्रृत-त्तेत्र मे प्रविष्ट होने का या दशैन शाल क! दरवाजा खट-खटाने का अधिकार. भी किसी कोन्हीं दै । इसी से सांसारिक विषयों के प्रति इस वैराभ्य-भावना को उद्धावित एवं परिपुष्ट करने के लिये दी दाशनिक साहित्य में विश्व को एकान्ततः गर्हित, हेय और पाँच




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