सूर की काव्य - कला | Sur Ki Kavy Kala

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्राक्कथन २ मे प्रकट किये गये हु । प्राशा है विस्तृत भ्रालोचना का श्रवसर भी कभी मिलेगा 1 दुर्भाग्यवश शुक्ल जी को वह श्रवसर न मिल सका । श्रपने ग्रंथ सूरदास के केवल दो भ्रध्याय--भवक्ति का विकास ग्रौर श्री वत्लभाचायं--ही लिखपायेथेकि स्वं से उनका आ्राह्वान हो गया, कला का प्रकरण उनके द्वारा अ्रछूता ही रह गया । श्राचायं हजारी प्रसाद द्विविरी रचित 'सूर-साहित्य' छोटा पर महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इसमें सुर-साहित्य के ग्रध्ययन सम्बन्धी दृष्टिकोण पर गम्भीर विचार है । साहित्य में कृष्ण के विकास पर मौलिक श्र विद्वत्तायूण विचार प्रस्तुत किये गये है तथा पाश्चात्य विद्वानों की अमपूरं स्थापना का निराकरण किया गया है । सूर के ग्रंथों पर समीक्षात्मक सामग्री इस पुस्तक में नहीं है । वास्तव में यह पुस्तक सूर-साहित्य पर श्राचायं जी द्वारा लिखे हुए कतिपय निबन्धो का संग्रह है । सूर-साहित्य की सर्वा- गीण समीक्षा करने का उद्देद्य इसमें नहीं था । इसीलिए काव्य-कला सम्बन्धी सामग्री भी उसमें उपलब्ध नहीं है । श्री नलिनीमोहन सान्याल-कृत 'भक्तशिरोमणि सूरदास , डा० रामरत्न भटनागर प्रर श्री वाचस्पति पाठक रचित “सूर-साहित्य की भूमिका' श्र डा० मुशी- लाल शर्मा 'सोम' के 'सूर-सोरभ' में सूर की जीवनी श्रौर सूर-काव्य के विभिन्‍न पक्षों पर व्यपिक काश डाला गया है । इन ग्रंथो में प्नध्ययन श्रधिक गम्भीर नहीं है । वास्तव में ये ग्रंथ छात्रोपयोगी ही हैं। “सूर-सौरभ' में फिर भी पर्याप्त विवेचन प्राप्त होता हू । सूर की जीवनी, ग्रंथों की प्रामारितकता श्रौर भक्ति-विवेचन में लेखक का प्रयत्न महत्त्वपूर्ण हू । काव्य-समीक्षा का प्रकरण भी 'सूर-सौरभ' में अपेक्षाकृत बड़ा है किन्तु पुस्तक के ४४ पृष्ठों में ग्सागर' का श्रवगाहन हो ही क्या सकता हे ? इस प्रकरण में लेखक का दृष्टिकोण उतना श्ननुसन्धानपरक भी नही है जितना श्रौरों में । दारिकाप्रसाद पारीखभश्रौर प्रमुदयाल मीतल-कत 'सूर-निणय' में विद्धान्‌ लेखकों ने परिश्रमदुवेक सूरदास सम्बन्धी समी संदिग्ध प्रश्नों पर गम्भीरता से विचार किया है । जीवनी प्रौर सिद्धान्तो के सम्बन्ध मं उनके गणेय बड़े महत्त्वपूर्ण हूं । काव्य-निर्णय ग्रंथ का अन्तिम परिच्छेद है। इसमें भाषा, रस आर कलात्मकता पर ग्रति सूक्ष्म विवरण है! विषय कौ पुर्णता मात्र के लिए ही लेखकों ने इस परिच्छेद को लिखकर खानापूरी की है । | लेखक महोदयों ने स्वयं ग्रंथ की भूमिका में अपने भाव इस प्रकार व्यक्त किये हैं-- पंचम परिच्छेद काव्य-निर्गाय में सूरदास के काव्य की श्रालोचना की गई है । इस सम्बन्ध में अब तक जितना श्ौर जैसा लिखा जा चुका है उससे अधिक श्रौर उत्तम लिखने की हम में योग्यता भी नहीं है । हमारा विचार पहले इस परिच्छेद का नहीं था किन्तु हमारे कुछ मित्रों का सुभक्ाव था कि विषय की पूृर्णता के लिए इस परिच्छेदको लिखना श्रावदयक है ।** ˆ * ` वास्तव में यह एक स्वतन्त्र कायं है जिसे संगीतशास् कां कोई श्रतुभवी विद्वान ही कर सकता है । हमने इस. विषय का संकेत मात्र कर दिया है । इसके ग्रतिरिक्त श्रन्य विषयों पर भी संक्षिप्त रूप से लिखकर हमने परिच्छेद समाप्त कर दिया है ।” | (सूर-निर्णय, भूमिका; पृष्ठ १०)




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