अन्तरनाद | Antaranad

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Antaranad by मुनिश्री भद्रगुप्तविजयजी - Munishree Bhadrguptvijayji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[१] १ मैं कया करूं हे प्रम पितिः टै परम छपानाय। सनादिक्राद म मभार म भटक्ता भेटक्ता म मापे द्वार पर भाया नाथ | सुक पर एक दृष्टि डाय्षि प्रम की मेस्णा थी दृष्टि । मेरे दन ! मैं जापक शरण स्मीकार वरता है... आपके नर्णाम म जपना तवस्य नपित कर्ता भरी ग्ना कौजिपे जव मैं आपवी ही शरण म हूँ आपको उध्वर में पहीं नहीं जाने का... मेरी जाह्मा वी सारी लवावदारी से बापकों सापता हूँ यत्य मेरे स्वामी ! अव में कया कहूँ ? जाप जा नी बह, मैं करने को तया]




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