ज्ञानसार | Gyanasar

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Gyanasar by मुनिश्री भद्रगुप्तविजयजी - Munishree Bhadrguptvijayji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कनाडा म जश्वत्त वचन था । गुर्देव वी सौम्य और वात्सत्यमयी मुप- मुद्रा उसका दृष्टि मे तरती रहती हूं । उसका मन गुष्देव का सान्निध्य पाने को सरसता है । खा+-पीन म गौर खेलने कुदन में उसवी कोर्ट रुचि नहीं रही । उसका मन उदास हो गया । बारवार उसकी आँखे भर आती थी | अपने प्यार पुत्र वी उत्वट घमभावना देख माता पिता वे हृदय में भी परिवतन भाया । जशवत्त वो लेकर वे पाटण गय 1 गुरुदेव श्री नयविजयजी बे चरणा मे जगवत को समपित्त कर दिया। शुभ मुहूत म जशवत की दीक्षा हुई । जगवत “मनि जशविजय' वन गया । याद म जशविजयजी “यशोविजयजी' नाम से प्रसिद्ध हुए । छदा भाई पथसिह भी ससार त्याग कर श्रमण वना) उका नाम पद्मविजयं रखा गयां । यदाचिजय और पश्मविजय कौ जोडी श्रमण सधम पोभायमान वनी रही । जस राम भौर लष्मण 1 साघु थनकर दाना भाई गुष्सेवा म और नानाम्यास मे लीन हा गय॑ । दिन रात उनका साधनायन चलता रहा! वि स १६९९ मे व अहमटाबाद पधारे । वहा उहान गुव्ाज्ञा से अपनी अपूव स्मृतिराक्तिका परिचय देनेवारे अवधान प्रयोग कर दिवाये । यशोविजयजी की तेजस्वी प्रतिभा देख कर, श्रेप्ठिरसन धनजी सूरा अत्यत प्रभावित हुए। उदाने गुरुदेव श्री नयविजयजी में पास आकर विनती थी गुरुदेव, श्री यज्ञाविजयजी सुयाग्य पात्र हैं । वुद्धिमानू हैं और गुणवान हूँ । य दूसरे हेमचद्रसूरि बन सकते है । माप उनका काशी भेजें भौर पड दर्शन वा अध्ययन करायें ।' गुष्देव न बहा 'महानुभाव, आपकी बात सही है। मैं भी चाहता हू ङि यगोविजयजी, विच्चाघाम दासी म जाकट अध्ययन बरें, परतु वहां मे पहित पसर स्वि विना अघ्ययन नही वराते हं 1 धाजी सूरान ष्टा शुरुदेव, आप उसकी जरा भी धिता नही रे । यदोयिजयजी ये अध्ययन भ जितना भी पच करना पढ़ेंगा, यह ग भष्गां मेरी सपत्ति का सदुपयोग होगा । ऐसा पुष्यलाम मरे भाग्य म कहा ?/ एक दिन यशाविजपजी गौर विनपविजयजी ने, गुख्नेवं के झागीवदि ले कर, कानी की मर प्रयाण र दिया 1 बाली पहुचपर पट्दगन के प्रका दिद्वानू भट्टाचाप के पारा अध्ययन प्रारम्भ गर दिया । भट्टाचार्प मे पास टूगरे ७०० छात्र विधिघ देना या एव धमस्व का अप्ययन करते थे । तजस्यी




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