अमर वल्लरी और अन्य कहानियाँ | Amar Vallari Aur Any Kahaniyan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
144
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अमरवल्लरी १७
था कि आसपास होने वाली घटनाओं में मेरी आसक्ति विल्कुछ नहीं थी,
कभी-कभी विमनस्क हो कर में उन्हें एक आँख देख भर लेता था । वह जो बात मैं
कहने लगा हूँ, उसे में नित्यप्रति देखा करता था, किन्तु देखते हुए भी नहीं
देखता था । और जब वह बात खत्म हो गयी, तब उस की ओर मेरा उत्तना
ध्यान भी नहीं रहा । पर मेरे जाने बिना ही वह सुझ पर अपनी छाप छोड़
गयी, और आज मुझे वह वात नहीं, उस बात की छाप ही दीख रही है । मैं
मानो प्रभात में वालूकामय भूमि पर अंकित पदचिन्हो को देख कर्, निशीथ
की नीरवता में उधर से गयी हुई किसी अभिसारिका की कल्पना कर रहा हँ |
मेरे चरणों पर पड़े हुए उस पत्थर की पूजा करने जो स्त्रियाँ आती थीं,
उन में कभी-कभी कोई नयी मूत्ति आ जाती थो, और कुछ दिन आती रहने
के बाद लुप्त हो जाती थी । ये नयी मूत्तियाँ प्राय: बहुत ही लज्जाशीला होतीं,
प्राय: उन के मुख फुलकारी के लाल और पीले अवगुंठन से ढके रहते, और
वे धोती इतनी नीची बाँधती कि उन के पैरों के नूपुर भी न दीख पाते ! केवल
मेरे समीप आकर जब वे प्रणाम करने को झुकतीं, तब उनका गोधूम वणे सुख
क्षण भर के लिए अनाच्छादित हो जाता, क्षण भर उनके मस्तक का सिन्दूर
कृष्ण मेघों में दामिनी की तरह चमक जाता, क्षण भर के लिए उन के उर पर
विजुलित हारावली मुझे दीख जाती, क्षण भर के लिए पैरों को किकिणियाँ
उद्घाटित हये कर चुपहो जातीं और मुग्व हो कर वाह्य-संतार की छटा को और
अपनी स्वासिनियों के सौन्दर्य को तिरखने लगतीं ! फिर सब-कुछ पूर्ववत्
हो जाता, अवगुंठन उन मुखों पर अपना प्रभुत्व दिखाने के लिए उन्हें छिगा
कर रख छेते, हारव्ियाँ उन स्निग्ध उरों में छिप कर सो जातीं, ओर नूपुर
भी मुँह छिपा कर धीरे-धीरे हँतने लगते. . . .
एक बार उन नयी मूत्तियों में एक ऐसी मूर्ति आयी, जो अन्य तभी ते भिन्न
थी । वह् सव की आंख वचा कर मेरे पास आती ओर शीघ्रता से प्रगाभ कर
के चली जाती, मानो डरती हो कि कोई उसे देख न ले । उस के पैरों में नूपुर
नहीं वजते थे, गले मे हारावली नहीं होती थी, मुख पर अवगुंठन नहीं होता
था, ललाट पर सिन्दूर-तिकक नहीं होता था । अन्य स्त्रियाँ रग-विरगे वस्वा-
अ० २
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