प्रेमदीपिका महात्मा अक्षर अनन्य कृत | Premadipika Mahatma Akshar Anany Krit

Premadipika Mahatma Akshar Anany Krit by राय बहादुर लाला सीताराम - Raay Bahaadur Laala Seetaram

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १२ ) अनुदिन प्रियतम के सन्निकट लाता है, परन्तु प्रियतम से मंट नही होती । इसका एक उदाहरण गणित शाख््र में दै । अतिपवेलय (7001018 को वक्र रेखा ( प्श) के बरावर एक सीधी रेखा रहती है जिसे असिष्टोद ( ^3911111016 ) कहते है । यह्‌ रेखा अतिपबंत्रय के सन्निकट होती जातो है परन्तु कभी नही मिलती । यदी दशा ईश्वर के प्रेमी को है । इश्वर से मिलने पर वह इश्वर ही हो जाता है, जैसा कि गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है-- 'सेवत तुमहि तुमदि हे जाई' ईश्वर, जैसा गोस्वामी जी का दूसरा वाक्य है-- “राम पुनीत प्रम अनुगामी है । खीखूप धारण करके इर के साथ रास विलास करना कामियों की कल्पना है । पुनीत प्रम नहीं हो सकता । अछिर-अ्रनिन्न (्रक्षर अनन्य) ` दतिया के महाराज दलपतराव बड़े वीर चोर मुगल सम्राट औरंगजेब के बड़े ख रख्वाहद थे । उनके पिता महाराज शुभकरनजी ने मुगल साम्राज्य की बड़ी सेवा की थी और उनके मरने पर औरंगजेब ने बड़ा शोक प्रकाश किया और उनके उत्तराधिकारी महाराज दलपत राव को पंजहज़ारी का पद दिया । दलपत राव ने सन्‌ १६८३ से १७८७ तक राज किया। उनके ५ कवर थे। पहिले कवर महराज रामचन्द्र उनके उत्तराधिकारी हुये ओर दूसरे कवर प्रथिवीसिंद्द को, जिन्हें अक्षर अनन्य अपने ज्ञान योग में प्रथीचन्द्राय कहता है, स्योंढा की जागीर मिली । अत्तर छनन्य जा कविता में अपना नाम अछिर, अच्छिर, अछिर अनिन्न ्ौर अनिन्न लिखते हैं जाति के कायस्थ; इन्हीं के गुरु थे । यहां एक




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